सर्वोच्च अदालत ने 1998 के उस फैसले को रद्द कर दिया जिसमें पाँच सदस्यीय संविधान पीठ ने उन मामलों में कानून निर्माताओं के लिए छूट को बरकरार रखा था जहाँ सांसद या विधायक सदन में भाषण या वोट के लिए रिश्वत लेते हैं।
अदालत ने कहा, "रिश्वतखोरी संसदीय विशेषाधिकारों द्वारा संरक्षित नहीं है और 1998 के फैसले की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के विपरीत है। ये दोनों अनुच्छेद निर्वाचित प्रतिनिधियों को अभियोजन से कानूनी छूट प्रदान करते हैं ताकि वे बिना किसी डर के काम कर सकें।"
भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा, "हम 1998 के पीवी नरसिम्हा मामले में फैसले से असहमत हैं, जो विधायकों को वोट देने या भाषण देने के बदले रिश्वत लेने के आरोप से छूट देता है। इस फैसले के महत्वपूर्ण परिणाम होंगे और इसे खारिज कर दिया गया है।"
दरअसल पीवी नरसिम्हा राव का मामला जुलाई 1993 में उनकी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव के सिलसिले में सामने आया था। अल्पमत सरकार मामूली अंतर से बच गई थी जब पक्ष में 265 वोट और विपक्ष में 251 वोट पड़े थे।
हालाँकि, एक साल बाद एक घोटाला सामने आया और आरोप लगे कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के विधायकों ने पीवी नरसिम्हा राव सरकार के समर्थन में वोट करने के लिए रिश्वत ली थी। 1998 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि अभियोजन से सांसदों की छूट सदन के अंदर उनके वोटों और भाषणों तक विस्तारित है।
पीठ ने कहा, "हमारा मानना है कि रिश्वतखोरी संसदीय विशेषाधिकारों द्वारा संरक्षित नहीं है। विधायकों द्वारा भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी भारतीय संसदीय लोकतंत्र के कामकाज को नष्ट कर देती है। राज्यसभा चुनाव में वोट देने के लिए रिश्वत लेने वाला एक विधायक भी भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत उत्तरदायी है।"
मुख्य न्यायाधीश ने कहा, पीवी नरसिम्हा फैसले के परिणामस्वरूप एक "विरोधाभासी स्थिति" उत्पन्न होती है, जिसमें एक विधायक जो रिश्वत लेता है और उसके अनुसार वोट देता है, उसे सुरक्षित कर दिया जाता है, जबकि एक विधायक जो रिश्वत लेने के बावजूद स्वतंत्र रूप से वोट करता है, उस पर मुकदमा चलाया जाता है।