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इराक पर अमेरिकी आक्रमण ने मध्य पूर्व में चीनी, ईरानी प्रभाव बढ़ाने में मदद दी: विशेषज्ञ

मास्को (Sputnik) - 2003 में इराक पर अमेरिकी आक्रमण ने मध्य पूर्व में वाशिंगटन के प्रभाव को घटा दिया, और संकट के बाद ईरान और चीन जैसे अन्य क्षेत्रीय और बाहरी ताकतों की भूमिका को मजबूत कर दिया, विशेषज्ञों ने Sputnik को बताया।
Sputnik
19 मार्च 2003 को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज वॉकर बुश ने ओवल ऑफिस से टेलीविज़न पर भाषण देते हुए कहा था, कि अमेरिका और उसके सहयोगियों ने इराक को निरस्त्र करने और "उसके लोगों को मुक्त करने" के लिए सैन्य अभियान को शुरू किया था। यह स्थिति आक्रमण की शुरुआत बनी जिसके कारण लाखों नागरिकों और सैनिकों की मौत हुई।
सद्दाम हुसैन की सरकार के पतन से और बाद में नए संविधान को अपनाने से तत्काल शांति सामने नहीं आई, क्योंकि इसके कारण इस से पहले प्रमुख सुन्नी अरब अल्पसंख्यक, शिया बहुमत और इराक के उत्तरी क्षेत्र में रहनेवाले कुर्द अल्पसंख्यक के बीच संबंधों में कई तरह का परिवर्तन हुआ। बाद में इसकी वजह से लंबे समय तक सांप्रदायिक हिंसा चली, जिसमें दोनों शिया और सुन्नी सैनिकों ने हिस्सा लिया, और फिर दाएश* पैदा हुआ। हालांकि अंत में दाएश इराक में हार गया, इससे शिया सशस्त्र समूह और मजबूत हो गए, जिन्हें अक्सर ईरान द्वारा समर्थन प्राप्त हुआ।

"यह आक्रमण इराकी लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए विनाशकारी रहा, वह लाखों नागरिकों के हताहतों के मामले में ही नहीं, अमेरिका द्वारा अपनाये गये संविधान के मामले में भी विनाशकारी था, जो शिया-सुन्नी मतभेदों को, ईरानी नेतृत्व में सैनिकों का निरंतर प्रभाव और सांप्रदायिक संघर्ष को बढ़ावा देता है”, हेमिल्टन कॉलेज में सरकार के अंतरराष्ट्रीय मामलों के विभाग के प्रोफेसर एलन कैफ्रुनी ने कहा।

विशेषज्ञ ने सुझाव दिया कि अमेरिकी आक्रमण के दौरान इराकी राज्य और सशस्त्र बलों के विनाश के कारण "क्रानिक राजनीतिक अस्थिरता" शुरू हुई और दाएश के उदय को मदद मिली , "जबकि व्यंग्य यह है कि अमेरिका की मदद से ईरान के प्रभाव को काफी बढ़ाया गया।"
फिर भी, अब भी इराक में अमेरिका का प्रभाव बड़ा है, इराक में उसके 18 सैन्य ठिकाने स्थित हैं, हालांकि अब उसे ईरान और उसके सैनिकों के साथ-साथ चीन से भी जूझना पड़ता है, जो, कैफ्रुनी के अनुसार, इराकी तेल का एक प्रमुख आयातक है। मध्य पूर्व में राजनीति के परिवर्तन के सबूत के रूप में उन्होंने सऊदी अरब और ईरान के मेल-मिलाप पर नियंत्रण करने में चीन की भूमिका के ऊपर प्रकाश डाला।

"आजकल अमेरिका इजरायल को समर्थन देता है, और इस कारण से ईरान पर हमले की संभावना को हटाना असंभव है। हालांकि, अमेरिका ने मध्य पूर्व में कुछ हद तक रुचि खो दी है, क्योंकि इसने तेल स्वतंत्रता हासिल की और अपना ध्यान रूस और चीन पर केंद्रित किया," कैफ्रुनी ने कहा।

इसके साथ, कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रोडरिक किविएट सोचते हैं कि एक प्रमुख सैन्य शक्ति के रूप में इराक की क्षमता को कम करने से, अमेरिकि हितों को लंबे समय तक मदद मिली।

"भविष्य में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई की बात करते हुए मुझे उम्मीद है कि वह नहीं होगी, और अब मैं कल्पना नहीं कर सकता कि हमें फिर से दुनिया के उस हिस्से में सैन्य कार्रवाई में शामिल होने की कोई जरूरत है। मुझे लगता है कि अगर इजरायल बड़े खतरे में हो तो इसकी संभावना हो। अब इजरायली लोग खुद की देखभाल करने में काफी सक्षम हैं, लेकिन कौन जानता है कि कब तक ऐसा रहेगा," किविएट ने बताया।

दूसरी ओर, स्कूल ऑफ पब्लिक पॉलिसी एंड ग्लोबल अफेयर्स में निरस्त्रीकरण, वैश्विक और मानव सुरक्षा में सिमन्स चेयर और ब्रिटिश कोलंबिया के विश्वविद्यालय में लियू इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल इश्यूज के निदेशक एम.वी. रमना का मानना है कि हालांकि आक्रमण ने इराकी आबादी पर क्रूर प्रभाव डाला और मध्य पूर्व के बड़े क्षेत्र को अस्थिर किया, यह संभावना कम है कि वाशिंगटन आगे से इस क्षेत्र में सशस्त्र बलों के उपयोग से बचने में सक्षम है ।

रमना ने कहा, "दुर्भाग्य से, इस खेदजनक इतिहास के बावजूद, मुझे नहीं लगता कि अमेरिका मध्य पूर्व में सैन्य कार्रवाई के विचार को छोड़ देगा।"

अमेरिका ने अपने आक्रमण को इराक के पास सामूहिक विनाश के हथियारों के कथित सबूतों के आधार पर शुरू किया था, जिसे 2003 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में तत्कालीन अमेरिकी राज्य सचिव कॉलिन पॉवेल द्वारा प्रस्तुत किया गया था। हालांकि, एक साल बाद कांग्रेस को सौंपी गई सीआईए की रिपोर्ट के अनुसार मालूम हुआ कि आक्रमण के समय इराक में सामूहिक विनाश का कोई हथियार नहीं था। बाद में पॉवेल ने कहा कि वह भाषण खुफिया विभाग की बड़ी असफलता थी
* रूस में प्रतिबंधित
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