भारत का पंजाब क्षेत्र अपनी भव्यता के कारण प्रसिद्ध है। स्वादिष्ट भोजन, पारंपरिक उत्सव, उदार और दयालु समाज सदियों से सारी दुनिया में पंजाबी जीवन शैली के सूचक हैं।
खेल में योगदान के अलावा,भारतीय सशस्त्र बलों में पंजाब का योगदान मूल्यवान माना जाता है, उतनी ही महत्वपूर्ण देश को भोजन के कटोरे बनाने में इस प्रदेश की विशेष भूमिका है।
पंजाब एक नजर में
पंजाब की यात्रा हमेशा सकारात्मक भावना से भरी होती है। हालांकि 1980 के दशक में वहाँ उग्रवाद की वृद्धि हुई, जिसको आज तक पूरी तरह हटाने में सफलता नहीं मिली है।
अतीत के उग्रवादी काल के विपरीत, आज स्थानीय लोग बिना डर के किसी पसंदीदा जगह आ जा सकते हैं। सिख, हिंदू या अन्य लोग शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की अवधारणा के अनुसार रहते हैं। पंजाब के सभी निवासी मिलकर होली और दीवाली हिंदू त्योहार या गुरु पर्व सिख त्योहार या वैसाखी आदि उत्सव मनाते हैं।
हालाँकि, पंजाबी लोग कभी-कभी खराब बुनियादी ढाँचे, शैक्षिक और रोजगार के अवसरों की कमी, कृषि सुधारों, पड़ोसी राज्यों के साथ जल के प्रयोग के कारण असन्तुष्ट होते हैं।
स्थानीय राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि राज्य सरकार के पास पर्याप्त धन की कमी है और वह केंद्रीय सरकार पर जिम्मेदारी डालती है, जो पंजाब को इस से पहले दिए गए लाखों रुपये के उचित मूल्याँकन की मांग करती है।
लोगों की चिंताओं को कम करने में हर पंजाब राज्य सरकार की विफलता और केवल केंद्रीय सरकार को दोषी ठहराने का निश्चय कट्टरपंथी ताकतों को लोकप्रिय बनने का अवसर बना देते हैं।
अन्याय की भावना और अवसरों की कमी पर ध्यान देते हुए, अलगाववाद के विभिन्न समर्थक युवाओं पर दबाव डालते हैं। वे सरकार के खिलाफ जनता के गुस्से का प्रयोग करते हैं, इसे खालिस्तान जैसी अलगाववादी मांगों के साथ मिलाते हैं, और इसके कारण मीडिया अकसर उन पर ध्यान केंद्रित करता है, स्थानीय बुद्धिजीवियों का मानना है।
हालाँकि, पंजाबियों के साथ बात करने से पता चलता है कि 33 मिलियन स्थानीय लोगों ने कभी खालिस्तान यानी सिखों के लिए संप्रभु राज्य बनाने का समर्थन नहीं किया है। अलगाववादियों की संख्या आम तौर पर कुछ सौ लोगों तक सीमित रहती है। वे आम तौर पर सरकार का विरोध करने या उसको चेतावनी देने के माध्यम से अपनी प्रासंगिकता दिखाने की कोशिश करते हैं।
लेकिन हाल ही में 18 मार्च को खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह ने अपने सहयोगियों को मुक्त करने के लिए एक पुलिस थाने पर हमला किया था। अमृतसर के पास अजनाला पुलिस थाने पर हमले का नेतृत्व करनेवाला 29 वर्षीय व्यक्ति और उसके समर्थक तलवारें और बंदूकें लहराते हुए, चारों ओर तनाव का कारण बने। लोग चिंताएं जताने लगे कि 1980 के दशक का कट्टरपंथी खालिस्तान आंदोलन अभी जिंदा है।
कट्टरपंथी खालिस्तानी ताकतों के पुनर्जीवन को लेकर चिंताओं और अनुमानों की स्थिति में Sputnik ने वास्तविक स्थिति समझने की कोशिश की।
खालिस्तान आंदोलन का पुनर्जीवन
जब 1985 में पंजाब में उग्रवाद की उछाल हुआ था तब मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) जी.डी. बख्शी वहाँ थे। उनके अनुसार, "विचारधारा के रूप में खालिस्तान मर चुका है ,यह कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम में अधिक जीवित है, जहां पाकिस्तान के बड़े वित्तपोषण की मदद से भारत विरोधी खुफिया एजेंसियां उसको जिंदा रखने पर काम करती हैं।"
स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि कांग्रेस, भाजपा, आप, अकाली दल सहित प्रमुख राजनीतिक दलों में से कोई भी दल चुनाव अभियान के दौरान खालिस्तान का उल्लेख नहीं करता है। वे कहते हैं कि यह कारण होता है कि पंजाब में यह मुद्दा लोकप्रिय नहीं है।
अमृतपाल सिंह और खालिस्तान अलगाववादी आंदोलन के पुनर्जीवन से संबंधित सवाल का जवाब देते हुए मेजर जनरल बख्शी ने कहा कि इस में कोई आंतरिक कारण शामिल नहीं है और कि “यह पूरी तरह से पाकिस्तान की जासूसी एजेंसी आईएसआई द्वारा बनाया गया था। ऐसा लगता है कि इसमें कुछ पश्चिमी खुफिया एजेंसियां भी शामिल हैं।"
उन्होंने यह भी बताया कि अरबपति जॉर्ज सोरोस ने कथित तौर पर मोदी सरकार को अस्थिर करने के लिए 2 अरब डॉलर की राशि जारी की है।
"आईएसआई ही नहीं, अन्य पश्चिमी एजेंसियां भी शामिल हैं: कनाडा मौन समर्थन देता है, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका [भी] समर्थन देते हैं," उन्होंने कहा।
क्या मीडिया ने अमृतपाल सिंह को लोकप्रिय किया है?
पंजाब के गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी में पूर्व राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर और प्रसिद्ध अकादमिक डॉ. जगरूप सखोन ने कहा कि किसी बड़े राज्य में किसी का समर्थन करने वाले कुछ सौ या हजार लोग या प्रवासी सब सिख समुदाय की मानसिकता को नहीं दिखा सकते हैं।
पंजाब में खालिस्तान आंदोलन कितना प्रमुख है?
अमृतपाल सिंह के मामले में डॉ. सखोन ने कहा कि "गाड़ियों को रोकने या बाजार बंद करने या अतीत में किसान विरोध के समान कोई भी हिंसक विरोध नहीं हुआ। यह दिखाता है कि समाज में इन लोगों का कोई बोलबाला नहीं है।"
इस सवाल का जवाब देते हुए कि क्या खालिस्तान से संबंधित विरोध 2024 के संसदीय चुनाव को प्रभावित हो सकते हैं, प्रसिद्ध पंजाबी पत्रकार रविंदर सिंह रॉबिन ने टिप्पणी की, "2024 बहुत दूर है और जनता की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है।"