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जार्ज सोरोस असुर है, पुतिन अर्जुन और मोदी विकसित भारत की सफलता: दुगिन

प्रसिद्ध रूसी दार्शनिक और राजनीतिक विज्ञानी प्रोफेसर अलेक्सांद्र दुगिन ने भारतीय सभ्यता के पुनर्जन्म, उभरती बहुध्रुवीय दुनिया और अन्य विषयों पर Sputnik India के साथ एक विशेष बातचीत में चर्चा की।
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अखंड भारत की उनकी कल्पना ऐसी सांस्कृतिक, आध्यात्मिक संरचना की है जिसमें सह अस्तित्व और प्राचीन वैदिक मूल्यों को मानते हुए पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका यहां तक कि मलेशिया, इंडोनेशिया और इंडोचीन के देश साथ में रह सकें।
प्रोफेसर दुगिन ने भारत में पुराने नामों को बदलने को मानसिक दासता से मुक्ति का प्रयास बताया और कहा कि सोरोस एक असुर है इसलिए वह हर उस बात के विरुद्ध है जो स्वस्थ है, सुंदर है, दृढ़ है और सुव्यवस्थित है।
प्रोफेसर अलेक्सांद्र दुगिन ने कहा कि हाल की उकसावे की घटनाएं परमाणु युद्ध भड़का सकती हैं क्योंकि रूस उत्तर अवश्य देगा।
प्रोफेसर दुगिन ने कहा, "शायद यह कलियुग का अंत है क्योंकि आसुरी शक्तियां मानवता के विध्वंस के लिए उकसा रही हैं। बाइडेन उसी आसुरी शक्ति का हिस्सा है जिसका हिस्सा जॉर्ज सोरोस है। यूक्रेन हमारा कुरुक्षेत्र है और पुतिन अर्जुन की तरह अपने रिश्तेदारों और मित्रों पर प्रहार करने में हिचकिचा रहे हैं। पर जैसा भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है कि कर्म करो और फल मुझ पर छोड़ दो, पुतिन भी अंत में युद्ध का निश्चय करेंगे। शांति तभी हो सकती है जब यूक्रेन के सारे क्षेत्र को स्वतंत्र करा लिया जाए उससे पहले नहीं। अगर परमाणु अस्त्र हैं तो उनका कभी न कभी प्रयोग अवश्य होगा।"
भारतीय दर्शन और वेदों को जानकार प्रोफेसर दुगिन ने अखंड भारत पर अपने विचार खुलकर साझा किए।

अखंड भारत के प्रश्न पर उन्होंने कहा, "अखंड रूस के विचार जैसा ही अखंड भारत का भी विचार है। यह राजनैतिक प्रभुत्व नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता को पुनर्जीवित करने का प्रयास होगा। हमें पश्चिमी औपनिवेशिक मानसिकता के दुष्प्रभाव से मुक्ति पानी होगी। अखंड भारत भारतीय सभ्यता के वैदिक जड़ों पर आधारित होगा, वैदिक समाज में समाहित परम शांति को स्वीकार करने और प्राचीन विज्ञान, पराभौतिकी जैसे सिद्धांतों को अपनाने से संभव होगा। इसमें भारतीय सूफ़ी इस्लाम, बौद्ध परंपराएं, जैन परंपराएं यहां तक कि वह ईसाई परंपराएं भी होंगी जो प्रोटेस्टेंट एजेंटों द्वारा थोपी गई परंपराओं से अलग हैं। यह एक मानसिक स्थिति होगी, आध्यात्मिक भारत होगा राजनैतिक मजबूरी नहीं।"

प्रोफेसर दुगिन ने इंडिया के बजाय भारत का प्रचार करने और शहरों के नामों के परिवर्तन के अभियान का भी समर्थन किया। उन्होंने कहा कि नाम केवल नाम नहीं होता बल्कि उसके साथ स्वरूप भी बदलता है।
उन्होंने कहा, "इंडिया नाम औपनिवेशिक शासकों ने दिया था, इंडिया अलग है और भारत अलग। उनके स्वतंत्रता के बाद भी कुछ लोगों की मानसिक दासता से मुक्ति नहीं हुई है। राजनैतिक, आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के बाद भी औपनिवेशिक बौद्धिक दासता से मुक्ति नहीं हुई है। नाम बदलना इसी मुक्ति का संघर्ष है और प्रधानमंत्री मोदी इसी का प्रयास कर रहे हैं।"
प्रोफेसर दुगिन ने अमेरिकी व्यापारी और निवेशक जॉर्ज सोरोस को कलियुग का अवतार बताते हुए कहा कि वह हर पवित्रता और सुव्यवस्थता का शत्रु है। उन्होंने कहा कि वह हर उस बात का विरोध करेगा जो सुंदर है, सत्य है, सुव्यवस्थित है, परंपरागत है।

उन्होंने कहा, "पुराणों में कई उदाहरण हैं जिनमें असुर मानवरूप में रहते थे। सोरोस असुर है, वह भारत, मोदी, रूस, पुतिन, ट्रंप, इस्लाम, एर्दोगन सबसे घृणा करता है। हर उस बात को बढ़ावा देता है जो खराब है, जहरीली है, बीमार है, विकृत है। भारत में वह दलितों को सरकार के खिलाफ़ उकसा रहा है क्योंकि वह सोचता है कि उनमें भारत को अस्थिर करने की शक्ति है। भारत में दलितों को अपनाने की कोशिशें हमेशा से होती रही हैं पर वह उन्हें भारत के विरुद्ध मोर्चाबंद कर रहा है। वह मोदी से घृणा करता है क्योंकि मोदी सुव्यवस्था है और विकसित होते भारत की सफलता है। मोदी भारत को दोबारा महान बनाना चाहते हैं जैसे पुतिन रूस को और ट्रंप अमेरिका को।"

दुगिन ने आगे कहा, "सोरोस को हर महानता से घृणा है, उसे विकृति और नीचाई पसंद है जैसे हर असुर को होती है। पर वह बाइडेन, रूस के उदारवादी विपक्ष और राहुल गांधी को क्यों छोड़ देता है। क्योंकि उसे लगता है कि इस तरह की राजनैतिक शक्तियां सुव्यवस्था, परंपरा, पहचान सब खुद ही समाप्त कर देंगी उसको यह काम नहीं करना पड़ेगा। भारत के हाल के चुनाव प्रचारों में सोरोस की छाप साफ नज़र आ रही थी। अगर आप अपने देश को बचाना चाहते हैं तो आपको सोरोस के खिलाफ़ खड़े होना होगा।"
भारत-चीन विवाद को सुलझाने के लिए प्रोफेसर दुगिन ने एक बार फिर से आध्यात्मिकता पर आधारित नई चर्चाओं पर ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि भारत और चीन की सीमाएं औपनिवेश काल की देन हैं। प्राचीन भारत में सीमाएं नहीं होती थीं बल्कि सीमांत प्रदेश होते थे।

उन्होंने कहा, "इन क्षेत्रों में संस्कृतियों का मेल होता था, सहयोग और मित्रता पैदा होती थी। भारत और चीन के बीच का विवाद सुलझाने के लिए गहन आध्यात्मिक सिद्धांतों पर आधारित संवाद होना चाहिए न कि पश्चिम द्वारा थोपे गए सतही सीमा के आधार पर। इस तरह की सीमाओं का सिद्धांत भारतीय सिद्धांतों से मेल नहीं खाता।"

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