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विश्व युद्ध हीरो की कहानी, जिनका परिवार भारत में गुमनाम रहता है
विश्व युद्ध हीरो की कहानी, जिनका परिवार भारत में गुमनाम रहता है
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पूरी दुनिया में द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों का योगदान महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, रूस के विजय दिवस (9 मई) के मौके पर हवलदार गजेंद्र सिंह चंद की कहानी को बताया जाता है।
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जबकि द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों का योगदान एक विशेष स्थान रखता है, व्यापक रूप से प्रशंसित नायकों में से एक, हवलदार गजेंद्र सिंह चंद को रूस के विजय दिवस (9 मई) पर हमेशा याद किया जाता है।सोवियत सेना को बहुत जरूरी सामग्री की आपूर्ति करते हुए उन्हें जांघ में बड़ी चोट लग गई थी। लेकिन बेहोश हो जाने से पहले वे माल की आपूर्ति करते रहे। जब कुछ दिनों बाद अस्पताल में उनका इलाज पूरी तरह कराया गया, उनको घर लौटने का मौका मिला। लेकिन गजेंद्र ने पुनः काम करना और सोवियत संघ को मदद देना जारी रखा।ईरान से होकर सोवियत सेना के लिए सैन्य सामग्री की आपूर्ति को सुनिश्चित करने में उनके विशेष योगदान और साहसी सहायता के कारण गजेंद्र को ऑर्डर ऑफ द रेड स्टार से सम्मानित किया गया, जो युद्ध और शांतिकाल के दौरान सोवियत संघ की रक्षा में महान योगदान के लिए दिया जाने वाला प्रतिष्ठित पदक है।विडंबना यह है कि अलंकृत युद्ध नायक का परिवार आज गुमनामी में एक विनम्र जीवन व्यतीत कर रहा है।इसके साथ उनका जीवन तपस्या से भरा है।जब Sputnik ने उनके परिवार से संपर्क स्थापित किया, तो गजेंद्र के सबसे छोटे बेटे सुभाष चंद ने कहा, "हमारे साथ एक ही गाँव में रहनेवाले लोगों या देशवासियों को नहीं है, बात यह है कि हमारी विवाहित बेटियों ने भी हाल ही में अपने मृत दादा के शौर्यपूर्ण प्रतिभा के महत्त्व को समझा।“सुभाष छोटे बच्चे थे जब उनके पिता को ऑर्डर ऑफ द रेड स्टार दिया गया था। लेकिन उनके 'पिताजी' गजेंद्र ने ब्रिटिश साम्राज्य की रॉयल इंडियन आर्मी सर्विस कॉर्प्स में उनको मिले पदक के बारे में कभी बात नहीं की थी।पारिवारिक संघर्ष और स्टोइकवादआज उनका परिवार उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के बडालू गांव में रहता है। लेकिन इस परिवार ने बहुत हद तक एक दयनीय जीवन व्यतीत किया है।सुभाष एक छोटी सी राशन की दुकान चलाकर बड़े हुए। इसकी मदद से वे अपने छोटे से परिवार के लिए भोजन उपलब्ध कराने में सफल हो सके, जिसमें बुजुर्ग पिता गजेंद्र भी सम्मिलित थे,जिन्हें श्वास रोग के कारण सांस लेने में समस्या थी।सुभाष की पत्नी 52 वर्षीय भागीरथी चंद के अनुसार, गृहिणी होने के नाते उनके लिए आर्थिक समस्याओं की स्थिति में तीन बेटियों और एक बेटे का पालन-पोषण करना बहुत कठिन था।आज उनके पति सुभाष पैरों में गंभीर हड्डी रोग सम्बन्धित समस्या के कारण अपंग हो गए हैं। यहाँ तक कि शौच के लिए भी, वह उसकी या उनकी बहू की सहायता पर निर्भर रहते है।परिवार का इकलौता बेटा सीमा पुलिस आईटीबीपी भारत तिब्बत सीमा पुलिस में नौकरी करता है और ड्यूटी पर महीनों परिवार से दूर रहता है।।एक मितव्ययी जीवन व्यतीत करते हुए, परिवार अपनी तीन बेटियों की शादी तभी कर सका जब कुछ रिश्तेदारों ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया। लेकिन भागीरथी उनका पक्ष उसी स्तर से लौटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।इस सवाल का जवाब देते हुए कि क्या परिवार ने कभी अपनी कठिनाई के कारण गजेंद्र की विरासत का उपयोग करने की कोशिश की थी, भागीरथी ने कहा: "यह निराशाजनक विकल्प था। ससुर जी ने भी अपने अंतिम वर्षों के दौरान श्वास रोग के कारण सांस लेने की समस्या होती थी और उन्होंने काफी कठिन समय का सामना किया था। उनकी उचित मूल चिकित्सा देखभाल करना भी कठिन था। आपको क्या लगता है? कि उन दिनों दवा खरीदना या उनको पहाड़ी इलाके में अस्पताल में ले जाना आसान था?"जब उनसे पूछा गया कि क्या गजेंद्र ने कभी उनकी वीरता पर चर्चा की थी, उन्होंने कहा कि शायद उनकी बीमारी ने उनको उसके बारे में सोचने और उसके बारे में किसी को बताने का अवसर ही नहीं दिया था।युद्ध हीरोसुभाष ने कहा, "मेरे पिता की मौत किसी भी अन्य आसान आदमी की मौत की तरह घर पर हुई थी। जब वे जिंदा थे, उन्हें कोई विशेष चिकित्सा उपचार नहीं मिला था क्योंकि कोई भी उनकी वीरता के बारे में नहीं जानता था। उनके बारे में उनके पैतृक स्थान पर भी कम लोग ही उन्हें जानते थे।""स्थानीय सरकारी अस्पताल में उनका इलाज हमेशा किसी अन्य सेवानिवृत्त सैनिक के इलाज की तरह ही किया जाता था," उन्होंने कहा।जब गजेंद्र की मौत हुई थी, तो वास्तव में परिवार में संकट आ गया। उनके बड़े निजी नुकसान से अभिभूत होने के बजाय अचानक अंतिम संस्कार के लिए धन की व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती थी। लापता ब्रिटिश आभारइस सवाल का जवाब देते हुए कि क्या ब्रिटिश सरकार ने कभी परिवार से संपर्क स्थापित किया, गजेंद्र के बेटे ने कहा: "1947 में ब्रिटिश शासकों के भारत छोड़ने के बाद, उनमें से किसी ने कभी हमसे संपर्क स्थापित नहीं किया।"हाल ही में 2020 में हमें विजय दिवस परेड में हिस्सा लेने के लिए निमंत्रण देने के लिए हमारे साथ संपर्क स्थापित किया गया। लेकिन हमने COVID महामारी से संबंधित चिंताओं के कारण इस से इनकार किया," सुभाष के बड़े भाई और सीमा सुरक्षा बल के पूर्व कर्मी जंग बहादुर चंद ने कहा।बाद में, उनके अनुरोध पर कर्नल-रैंक के रूसी वायु सेना और भारतीय सेना के दो अधिकारियों ने उनसे भेंट की और पदक लिया।परिवार गजेंद्र के स्मारक का इंतजार करता रहता हैजैसा कि उनके गांव वाले भी उनके महान पिता की वीरता से परिचित नहीं हैं, परिवार चाहता है कि सरकार उन्हें एक प्रेरणा के रूप में अमर बनाए।23 मई 1944 को, सोवियत संघ के सुप्रीम सोवियत के प्रेसिडियम ने रॉयल इंडियन आर्मी सर्विस कॉर्प्स के दो भारतीय सैनिकों हवलदार गजेंद्र सिंह और सूबेदार नारायण राव निक्कम को ऑर्डर ऑफ़ द रेड स्टार से सम्मानित किया था। अब इन सेवा वाहिनी(कोर)को भारतीय सेना सेवा कोर (ASC) कहा जाता है।यह सोवियत संघ के 'महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध' (1941-1945) यानी द्वितीय विश्व युद्ध के महत्त्वपूर्ण हिस्से के वीरता पुरस्कारों में से एक है। उसके दौरान सोवियत संघ ने नाजी जर्मनी और उसके सहयोगियों से लड़ाई की थी, और वह सोवियत संघ की विजय और जर्मन सेना की हार के साथ समाप्त हुआ था।
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विश्व युद्ध हीरो की कहानी, जिनका परिवार भारत में गुमनाम रहता है
11:57 07.05.2023 (अपडेटेड: 22:47 07.05.2023) विशेष
पिछले साल द्वितीय विश्व युद्ध में जीत की 77वीं वर्षगांठ समारोह के दौरान भारत में रूसी राजदूत डेनिस अलीपोव ने कठिन वर्षों में सोवियत संघ को सहायता देने के लिए भारत का आभार व्यक्त किया था।
जबकि द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों का योगदान एक विशेष स्थान रखता है, व्यापक रूप से प्रशंसित नायकों में से एक, हवलदार गजेंद्र सिंह चंद को रूस के विजय दिवस (9 मई) पर हमेशा याद किया जाता है।
सोवियत सेना को बहुत जरूरी सामग्री की आपूर्ति करते हुए उन्हें जांघ में बड़ी चोट लग गई थी। लेकिन बेहोश हो जाने से पहले वे माल की आपूर्ति करते रहे। जब कुछ दिनों बाद अस्पताल में उनका इलाज पूरी तरह कराया गया, उनको घर लौटने का मौका मिला। लेकिन गजेंद्र ने पुनः काम करना और सोवियत संघ को मदद देना जारी रखा।
ईरान से होकर सोवियत सेना के लिए सैन्य सामग्री की आपूर्ति को सुनिश्चित करने में उनके विशेष योगदान और साहसी सहायता के कारण गजेंद्र को
ऑर्डर ऑफ द रेड स्टार से सम्मानित किया गया, जो युद्ध और शांतिकाल के दौरान सोवियत संघ की रक्षा में महान योगदान के लिए दिया जाने वाला प्रतिष्ठित पदक है।
विडंबना यह है कि अलंकृत युद्ध नायक का परिवार आज गुमनामी में एक विनम्र जीवन व्यतीत कर रहा है।इसके साथ उनका जीवन तपस्या से भरा है।
जब Sputnik ने उनके परिवार से संपर्क स्थापित किया, तो गजेंद्र के सबसे छोटे बेटे सुभाष चंद ने कहा, "हमारे साथ एक ही गाँव में रहनेवाले लोगों या देशवासियों को नहीं है, बात यह है कि हमारी विवाहित बेटियों ने भी हाल ही में अपने मृत दादा के शौर्यपूर्ण प्रतिभा के महत्त्व को समझा।“
65 वर्षीय आदमी ने कहा कि "हाल ही में भारत-रूस संबंधों की 75वीं जयंती से संबंधित कार्यक्रम में भाग लेने के लिए हमें मिले रूसी सरकार के निमंत्रण के कारण” उनको यह ज्ञात हुआ था, “जब हमारे परिवार ने युद्ध के दौरान मेरे पिता के साहसी कार्यों पर विस्तार से चर्चा की थी।"
सुभाष छोटे बच्चे थे जब उनके पिता को ऑर्डर ऑफ द रेड स्टार दिया गया था। लेकिन उनके 'पिताजी' गजेंद्र ने
ब्रिटिश साम्राज्य की रॉयल इंडियन आर्मी सर्विस कॉर्प्स में उनको मिले पदक के बारे में कभी बात नहीं की थी।
पारिवारिक संघर्ष और स्टोइकवाद
आज उनका परिवार उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के बडालू गांव में रहता है। लेकिन इस परिवार ने बहुत हद तक एक दयनीय जीवन व्यतीत किया है।
सुभाष एक छोटी सी राशन की दुकान चलाकर बड़े हुए। इसकी मदद से वे अपने छोटे से परिवार के लिए भोजन उपलब्ध कराने में सफल हो सके, जिसमें बुजुर्ग पिता गजेंद्र भी सम्मिलित थे,जिन्हें श्वास रोग के कारण सांस लेने में समस्या थी।
सुभाष की पत्नी 52 वर्षीय भागीरथी चंद के अनुसार, गृहिणी होने के नाते उनके लिए आर्थिक समस्याओं की स्थिति में तीन बेटियों और एक बेटे का पालन-पोषण करना बहुत कठिन था।
आज उनके पति सुभाष पैरों में गंभीर हड्डी रोग सम्बन्धित समस्या के कारण अपंग हो गए हैं। यहाँ तक कि शौच के लिए भी, वह उसकी या उनकी बहू की सहायता पर निर्भर रहते है।परिवार का इकलौता बेटा सीमा पुलिस आईटीबीपी
भारत तिब्बत सीमा पुलिस में नौकरी करता है और ड्यूटी पर महीनों परिवार से दूर रहता है।।
एक मितव्ययी जीवन व्यतीत करते हुए, परिवार अपनी तीन बेटियों की शादी तभी कर सका जब कुछ रिश्तेदारों ने मदद के लिए हाथ बढ़ाया। लेकिन भागीरथी उनका पक्ष उसी स्तर से लौटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
इस सवाल का जवाब देते हुए कि क्या परिवार ने कभी अपनी कठिनाई के कारण गजेंद्र की विरासत का उपयोग करने की कोशिश की थी, भागीरथी ने कहा: "यह निराशाजनक विकल्प था। ससुर जी ने भी अपने अंतिम वर्षों के दौरान श्वास रोग के कारण सांस लेने की समस्या होती थी और उन्होंने काफी कठिन समय का सामना किया था। उनकी उचित मूल चिकित्सा देखभाल करना भी कठिन था। आपको क्या लगता है? कि उन दिनों दवा खरीदना या उनको पहाड़ी इलाके में अस्पताल में ले जाना आसान था?"
अपने ससुर गजेंद्र के व्यक्तित्व के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि वे मूल रूप से विनम्र व्यक्ति थे। भागीरथी ने कहा कि उन्होंने तीन सालों के दौरान उनके पास रहते हुए उनकी देखभाल की थी और अपनी बच्ची का पालन-पोषण किया था।
जब उनसे पूछा गया कि क्या गजेंद्र ने कभी उनकी
वीरता पर चर्चा की थी, उन्होंने कहा कि शायद उनकी बीमारी ने उनको उसके बारे में सोचने और उसके बारे में किसी को बताने का अवसर ही नहीं दिया था।
सुभाष ने कहा, "मेरे पिता की मौत किसी भी अन्य आसान आदमी की मौत की तरह घर पर हुई थी। जब वे जिंदा थे, उन्हें कोई विशेष चिकित्सा उपचार नहीं मिला था क्योंकि कोई भी उनकी वीरता के बारे में नहीं जानता था। उनके बारे में उनके पैतृक स्थान पर भी कम लोग ही उन्हें जानते थे।"
"स्थानीय सरकारी अस्पताल में उनका इलाज हमेशा किसी अन्य सेवानिवृत्त सैनिक के इलाज की तरह ही किया जाता था," उन्होंने कहा।
जब गजेंद्र की मौत हुई थी, तो वास्तव में परिवार में संकट आ गया। उनके बड़े निजी नुकसान से अभिभूत होने के बजाय अचानक
अंतिम संस्कार के लिए धन की व्यवस्था करना एक बड़ी चुनौती थी।
भागीरथी ने कहा, "अंत में परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा को बचाना संभव हुआ क्योंकि निकटतम रिश्तेदारों ने धन योगदान करने का फैसला किया। और अंत में किसी भी सामान्य व्यक्ति की तरह उनके परिवार के सदस्यों की उपस्थिति में उनका अंतिम संस्कार किया गया।"
इस सवाल का जवाब देते हुए कि क्या ब्रिटिश सरकार ने कभी परिवार से संपर्क स्थापित किया, गजेंद्र के बेटे ने कहा: "1947 में ब्रिटिश शासकों के भारत छोड़ने के बाद, उनमें से किसी ने कभी हमसे संपर्क स्थापित नहीं किया।"
“शायद हमें उनसे संपर्क स्थापित करना चाहिए था। लेकिन हमारे पास किसी कार्यालय में जाने या पत्राचार करने के लिए न मूल कार्यप्रणाली की समझ और न ही मूल साधन थे।केवल रूसी या भारतीय सेना के अधिकारियों ने परिवार से संपर्क स्थापित किया,” उन्होंने कहा।
हाल ही में 2020 में हमें विजय दिवस परेड में हिस्सा लेने के लिए निमंत्रण देने के लिए हमारे साथ संपर्क स्थापित किया गया। लेकिन हमने
COVID महामारी से संबंधित चिंताओं के कारण इस से इनकार किया," सुभाष के बड़े भाई और सीमा सुरक्षा बल के पूर्व कर्मी
जंग बहादुर चंद ने कहा।
बाद में, उनके अनुरोध पर कर्नल-रैंक के रूसी वायु सेना और भारतीय सेना के दो अधिकारियों ने उनसे भेंट की और पदक लिया।
"अब वह सम्मान पदक कर्नाटक राज्य में बेंगलुरु के ASC संग्रहालय में रखा हुआ है। लोग हमारे बारे में तभी सोचते हैं जब रूस हमारे बारे में बात करता है," जंग बहादुर ने कहा, जो कि सीमा सुरक्षा बल में नौकरी करने के कारण अपने पिता के अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने में असमर्थ रहे थे ।
परिवार गजेंद्र के स्मारक का इंतजार करता रहता है
जैसा कि उनके गांव वाले भी उनके महान पिता की वीरता से परिचित नहीं हैं, परिवार चाहता है कि सरकार उन्हें एक प्रेरणा के रूप में अमर बनाए।
"नियमित वित्तीय सहायता से कौन इनकार करेगा? लेकिन हम अपनी सरकार से अपील करते हैं कि झूला रोड से होकर पिथौरागढ़ जिले को नेपाल से जोड़ने वाली मुख्य सड़क पर कम से कम स्वागत द्वार का निर्माण किया जाए। यह उनके साहस के प्रति बढ़िया श्रद्धांजलि के रूप में और स्थानीय हीरो के बारे में सोचते हुए प्रेरणा के रूप में काम कर सकता है," परिवार की बहू पूनम ने कहा।
23 मई 1944 को,
सोवियत संघ के सुप्रीम सोवियत के प्रेसिडियम ने रॉयल इंडियन आर्मी सर्विस कॉर्प्स के दो भारतीय सैनिकों
हवलदार गजेंद्र सिंह और
सूबेदार नारायण राव निक्कम को ऑर्डर ऑफ़ द रेड स्टार से सम्मानित किया था। अब इन सेवा वाहिनी(कोर)को भारतीय सेना सेवा कोर (ASC) कहा जाता है।
यह सोवियत संघ के 'महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध' (1941-1945) यानी
द्वितीय विश्व युद्ध के महत्त्वपूर्ण हिस्से के वीरता पुरस्कारों में से एक है। उसके दौरान सोवियत संघ ने नाजी जर्मनी और उसके सहयोगियों से लड़ाई की थी, और वह सोवियत संघ की विजय और जर्मन सेना की हार के साथ समाप्त हुआ था।