"पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा के तीन-चार कारण हैं, एक तो ऐतिहासिक रूप से बंगाल की राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा रहा है। राजनीतिक हिंसा बंगाल में ब्रिटिश समय से चल रहा है। और आज़ादी के समय बंगाल विभाजन के दौरान हिंदू-मुस्लिम दंगों में हजारों लोगों की मौत हुई थी। वह भी राज्य के समाज में हिंसा का मुख्य वजह रहा है," प्रोफेसर बिश्वनाथ चक्रबर्ती ने Sputnik को बताया।
"तत्कालीन मुख्य विपक्षी कम्युनिष्ट पार्टी क्रांति के नाम पर आर्म्स स्ट्रगल से सत्ता हासिल करना चाहते थे। पहले दो-तीन चुनावों में कम्युनिष्ट पार्टी बैन भी था लेकिन वे हिंसा से राजनीतिक क्रियाकलाप को आगे बढ़ाया। [...] हिंसा को रणनीति बनाकर वे सत्ता में आना चाहते थे," प्रोफेसर चक्रबर्ती ने कहा।
हिंसा और प्रतिहिंसा का दौर
"विपक्षी हिंसा का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस सरकार पुलिस द्वारा प्रतिहिंसा (काउंटर हिंसा) करता था। हिंसा और प्रतिहिंसा बंगाल की राजनीति में दिनचर्या का हिस्सा बन गया। 70 के दशक में बंगाल की राजनीति नक्सल आंदोलन के जरिए हिंसा के नए स्वरूप का गवाह बनी। जो चरम मार्क्सवादी था उन लोगों ने पुलिस और जमींदार के खिलाफ आर्म्स संघर्ष किया। इस दौर में पूरा आंदोलन ही हिंसा पर आधारित था। उस हिंसक आंदोलन को दबाने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे प्रतिहिंसा किया," प्रोफेसर चक्रबर्ती ने विस्तार से बताया।
"1977 के चुनाव में लेफ्ट फ्रंट सरकार में आया और 34 वर्ष तक पश्चिम बंगाल में शासन किया। वह हिंसा के रणनीतिक नीति के तौर पर उपयोग किया। हालाँकि उसको सतह पर सामने नहीं आने दिया लेकिन पार्टी कैडर देखकर हिंसा किया और राज्य में विपक्ष को साफ़ कर दिया। लेफ्ट गवर्नमेंट का जो 2000 के बाद का अंतिम दस साल है उस दौरान हिंसा लगभग संरचनात्मक रूप में किया गया। जंगलमहल और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण के सवाल हिंसा इसी स्वरुप का उदाहरण है। कम्युनिस्ट पार्टी समर्थित हिंसा राज्य में इतना बढ़ गया कि विपक्ष को काम करने नहीं देता था," प्रोफेसर चक्रबर्ती ने कहा।