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पश्चिम बंगाल में चुनाव से पहले बार-बार क्यों होती है हिंसा? जानिए विशेषज्ञ की राय
पश्चिम बंगाल में चुनाव से पहले बार-बार क्यों होती है हिंसा? जानिए विशेषज्ञ की राय
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पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा कोई नई बात नहीं है। राज्य में पंचायत चुनाव के लिए 8 जुलाई को वोटिंग होगी और 11 जुलाई को नतीजे आएंगे।
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पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा नई बात नहीं है। चुनावी मौसम में हिंसा सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच फैलता है। राज्य में पंचायत चुनाव के लिए 8 जुलाई को वोटिंग होगी और 11 जुलाई को नतीजे आएंगे।दशकों से बंगाल की राजनीति में हिंसा की वजह जानने के लिए Sputnik ने रबिन्द्र भारती यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के प्रोफेसर बिश्वनाथ चक्रबर्ती से बात की।दरअसल पश्चिम बंगाल में पार्टी-पॉलिटिक्स, एक तरह से आइडियोलॉजिकल लाइन पर राजनीति होती है, वो बहुत मजबूत है। खासकर 60-70 के दशक के बाद जब राज्य में कांग्रेस के डोमिनेशन को मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी (CPM) ने चुनौती देना शुरू की, तब से राज्य में हिंसक घटनाओं में वृद्धि होने लगी।हिंसा और प्रतिहिंसा का दौर1960 के दशक में पश्चिम बंगाल के राजनीतिक लोकाचार में हिंसा का एक नया बीज बोया गया था। जैसे-जैसे शासन बदलते गए और नई विचारधाराएँ सामने आईं, नई और परस्पर विरोधी व्याख्याओं के माध्यम से बल प्रयोग को या तो उचित ठहराया गया या इसका विरोध किया गया।गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल के मार्क्सवादियों ने पहली बार 1967 में संयुक्त मोर्चा सरकार के गठन के माध्यम से सत्ता का स्वाद चखा। कोलकाता में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सशस्त्र कार्यकर्ताओं द्वारा जुलूस निकाला गया, जिन्होंने सर्वहारा वर्ग के शासन की स्थापना की शपथ ली। साल 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान मतदान के दिन 10 लोगों की मृत्यु हुई, जबकि 2003 में 76 और 2013 में 39 लोगों की सर्वकालिक उच्च मृत्यु हुई थी। बूथ कैप्चरिंग और मीडिया और पुलिसकर्मियों के सामने मतपत्रों को जलाने के कारण चुनाव में बाधा उत्पन्न हुई।राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने 2018 की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पूरे साल के दौरान देश में 54 राजनीतिक हत्या के मामलों में से 12 बंगाल से संबंधित थे। लेकिन इसी साल केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार को एक एडवाइजरी भेजकर कहा था कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा में 96 हत्याएं हो चुकी हैं और लगातार जारी हिंसा गंभीर चिंता का विषय है।दरअसल पश्चिम बंगाल में पहचान की राजनीति दलीय निष्ठा को लेकर बंटी हुई है। परिदृश्य पार्टी के झंडों से भरा हुआ है जो क्षेत्र में अन्य सभी पर एक राजनीतिक दल के प्रभुत्व की घोषणा करता है। संघर्ष के पैमाने और तीव्रता में प्रमुख राजनीतिक ताकत को चुनौती के आधार पर उतार-चढ़ाव होता है।इस बीच, कलकत्ता हाई कोर्ट ने पंचायत चुनाव के लिए केंद्रीय बलों को तैनात करने का आदेश दे दिया है जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगाई है। चुनाव के दौरान सेंट्रल फोर्सेस की तैनाती होंगी।जब Sputnik ने सवाल किया कि क्या सेंट्रल फोर्सेस की तैनाती हिंसा को रोक पाएंगी? इस सवाल के जवाब में चक्रवर्ती ने कहा कि केंद्रीय बलों की तैनाती से चुनावी हिंसा रुकने की संभावना बहुत मुश्किल है।
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पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा, पंचायत चुनाव की घोषणा के बाद हिंसा, आर्म्स स्ट्रगल से सत्ता, पश्चिम बंगाल के राजनीतिक लोकाचार में हिंसा, हिंसा का मुकाबला, हिंसक आंदोलन जरिए पार्टी का विस्तार, इमरजेंसी के दौरान राजनीतिक हिंसा, पंचायत चुनाव के लिए केंद्रीय बलों की तैनाती, हिंसा से राजनीतिक फायदा
पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा, पंचायत चुनाव की घोषणा के बाद हिंसा, आर्म्स स्ट्रगल से सत्ता, पश्चिम बंगाल के राजनीतिक लोकाचार में हिंसा, हिंसा का मुकाबला, हिंसक आंदोलन जरिए पार्टी का विस्तार, इमरजेंसी के दौरान राजनीतिक हिंसा, पंचायत चुनाव के लिए केंद्रीय बलों की तैनाती, हिंसा से राजनीतिक फायदा
पश्चिम बंगाल में चुनाव से पहले बार-बार क्यों होती है हिंसा? जानिए विशेषज्ञ की राय
16:36 01.07.2023 (अपडेटेड: 16:37 01.07.2023) पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव की घोषणा के बाद से ही एक बार फिर राज्य के अलग-अलग इलाकों से हिंसा की खबरें सामने आने लगी हैं। इसके बाद एक बार फिर यह सवाल उठने लगा है कि आखिर चुनाव के दौरान यहां हिंसा क्यों भड़कती है?
पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा नई बात नहीं है। चुनावी मौसम में हिंसा सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच फैलता है। राज्य में पंचायत चुनाव के लिए 8 जुलाई को वोटिंग होगी और 11 जुलाई को नतीजे आएंगे।
दशकों से
बंगाल की राजनीति में हिंसा की वजह जानने के लिए Sputnik ने
रबिन्द्र भारती यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट के प्रोफेसर बिश्वनाथ चक्रबर्ती से बात की।
"पश्चिम बंगाल की राजनीति में हिंसा के तीन-चार कारण हैं, एक तो ऐतिहासिक रूप से बंगाल की राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा रहा है। राजनीतिक हिंसा बंगाल में ब्रिटिश समय से चल रहा है। और आज़ादी के समय बंगाल विभाजन के दौरान हिंदू-मुस्लिम दंगों में हजारों लोगों की मौत हुई थी। वह भी राज्य के समाज में हिंसा का मुख्य वजह रहा है," प्रोफेसर बिश्वनाथ चक्रबर्ती ने Sputnik को बताया।
दरअसल पश्चिम बंगाल में पार्टी-पॉलिटिक्स, एक तरह से
आइडियोलॉजिकल लाइन पर राजनीति होती है, वो बहुत मजबूत है। खासकर 60-70 के दशक के बाद जब राज्य में कांग्रेस के डोमिनेशन को मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी (CPM) ने चुनौती देना शुरू की, तब से राज्य में हिंसक घटनाओं में वृद्धि होने लगी।
"तत्कालीन मुख्य विपक्षी कम्युनिष्ट पार्टी क्रांति के नाम पर आर्म्स स्ट्रगल से सत्ता हासिल करना चाहते थे। पहले दो-तीन चुनावों में कम्युनिष्ट पार्टी बैन भी था लेकिन वे हिंसा से राजनीतिक क्रियाकलाप को आगे बढ़ाया। [...] हिंसा को रणनीति बनाकर वे सत्ता में आना चाहते थे," प्रोफेसर चक्रबर्ती ने कहा।
हिंसा और प्रतिहिंसा का दौर
1960 के दशक में पश्चिम बंगाल के
राजनीतिक लोकाचार में हिंसा का एक नया बीज बोया गया था। जैसे-जैसे शासन बदलते गए और नई विचारधाराएँ सामने आईं, नई और परस्पर विरोधी व्याख्याओं के माध्यम से बल प्रयोग को या तो उचित ठहराया गया या इसका विरोध किया गया।
"विपक्षी हिंसा का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस सरकार पुलिस द्वारा प्रतिहिंसा (काउंटर हिंसा) करता था। हिंसा और प्रतिहिंसा बंगाल की राजनीति में दिनचर्या का हिस्सा बन गया। 70 के दशक में बंगाल की राजनीति नक्सल आंदोलन के जरिए हिंसा के नए स्वरूप का गवाह बनी। जो चरम मार्क्सवादी था उन लोगों ने पुलिस और जमींदार के खिलाफ आर्म्स संघर्ष किया। इस दौर में पूरा आंदोलन ही हिंसा पर आधारित था। उस हिंसक आंदोलन को दबाने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे प्रतिहिंसा किया," प्रोफेसर चक्रबर्ती ने विस्तार से बताया।
गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल के मार्क्सवादियों ने पहली बार 1967 में संयुक्त मोर्चा सरकार के गठन के माध्यम से सत्ता का स्वाद चखा। कोलकाता में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के सशस्त्र कार्यकर्ताओं द्वारा जुलूस निकाला गया, जिन्होंने सर्वहारा वर्ग के शासन की स्थापना की शपथ ली।
"1977 के चुनाव में लेफ्ट फ्रंट सरकार में आया और 34 वर्ष तक पश्चिम बंगाल में शासन किया। वह हिंसा के रणनीतिक नीति के तौर पर उपयोग किया। हालाँकि उसको सतह पर सामने नहीं आने दिया लेकिन पार्टी कैडर देखकर हिंसा किया और राज्य में विपक्ष को साफ़ कर दिया। लेफ्ट गवर्नमेंट का जो 2000 के बाद का अंतिम दस साल है उस दौरान हिंसा लगभग संरचनात्मक रूप में किया गया। जंगलमहल और नंदीग्राम में भूमि अधिग्रहण के सवाल हिंसा इसी स्वरुप का उदाहरण है। कम्युनिस्ट पार्टी समर्थित हिंसा राज्य में इतना बढ़ गया कि विपक्ष को काम करने नहीं देता था," प्रोफेसर चक्रबर्ती ने कहा।
साल 2018 के पंचायत चुनाव के दौरान मतदान के दिन 10 लोगों की मृत्यु हुई, जबकि 2003 में 76 और 2013 में 39 लोगों की सर्वकालिक उच्च मृत्यु हुई थी। बूथ कैप्चरिंग और मीडिया और पुलिसकर्मियों के सामने मतपत्रों को जलाने के कारण चुनाव में बाधा उत्पन्न हुई।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) ने 2018 की अपनी रिपोर्ट में कहा था कि पूरे साल के दौरान देश में 54 राजनीतिक हत्या के मामलों में से 12 बंगाल से संबंधित थे। लेकिन इसी साल केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य सरकार को एक एडवाइजरी भेजकर कहा था कि पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा में 96 हत्याएं हो चुकी हैं और लगातार जारी हिंसा गंभीर चिंता का विषय है।
दरअसल पश्चिम बंगाल में पहचान की
राजनीति दलीय निष्ठा को लेकर बंटी हुई है। परिदृश्य पार्टी के झंडों से भरा हुआ है जो क्षेत्र में अन्य सभी पर एक राजनीतिक दल के प्रभुत्व की घोषणा करता है। संघर्ष के पैमाने और तीव्रता में प्रमुख राजनीतिक ताकत को चुनौती के आधार पर उतार-चढ़ाव होता है।
इस बीच, कलकत्ता हाई कोर्ट ने पंचायत चुनाव के लिए केंद्रीय बलों को तैनात करने का आदेश दे दिया है जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगाई है। चुनाव के दौरान सेंट्रल फोर्सेस की तैनाती होंगी।
जब Sputnik ने सवाल किया कि क्या सेंट्रल फोर्सेस की तैनाती हिंसा को रोक पाएंगी? इस सवाल के जवाब में चक्रवर्ती ने कहा कि केंद्रीय बलों की तैनाती से चुनावी हिंसा रुकने की संभावना बहुत मुश्किल है।