भारतीय जनता लंबे समय तक चले स्वतंत्रता संग्राम के बाद साम्राज्यवादी ब्रिटिश शासन से आज़ादी प्राप्त कर पाई थी। भारतीय लोगों की वीरता और दृढ़ता की बदौलत इस वर्ष भारत अपना
77वां स्वतंत्रता दिवस मना रहा है।
इस वर्ष के स्वतंत्रता दिवस का विषय "राष्ट्र प्रथम, सदैव प्रथम" है, जो "आजादी का अमृत महोत्सव" का एक हिस्सा है। महोत्सव का उद्देश्य देश के सभी स्वतंत्रता सेनानियों को श्रद्धांजलि देना और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महत्वपूर्ण स्थलों को याद करना है।
मंगलवार सुबह प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक भाषण देने से पहले ऐतिहासिक
लाल किले से राष्ट्रीय झंडा फहराया।
लेकिन जब ऐतिहासिक दिन के जश्न की बात आती है तो इसके दो पहलू होते हैं। एक ओर हम राजधानी में तिरंगे और रौशनी से सजाई गई भव्य इमारतों को देखते हैं, जिनके ऊपर
राष्ट्रीय झंडा लहराता है। दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं जो आजीविका कमाने के लिए सड़कों पर राष्ट्रीय झंडे बेचते हैं।
स्वतंत्रता दिवस से पहले Sputnik India ने दिल्ली की हलचल भरी सड़कों का दौरा किया और कुछ परिवारों से बात की जो सड़कों पर तिरंगे बेच रहे थे ताकि समझें कि उनके लिए स्वतंत्रता का क्या मतलब है, वे झंडे और अन्य सामान बेचकर कैसे जीवित रहते हैं, रोज़ी-रोटी कमाने के लिए वे क्या करते हैं।
भारत में स्वतंत्रता दिवस मनाने से कुछ दिन पहले राष्ट्रीय राजधानी की जीवंत सड़कों के किनारे फुटपाथों पर झंडों, हैंड बैंड, टोपियां, खिलौने और तिरंगे रंग की कई अन्य वस्तुओं से सजी अस्थायी दुकानें देखी गईं।
आजीविका कमाने की उम्मीद से ये लोग स्वतंत्रता दिवस का सामान बेचकर खुद को देशभक्ति की भावना से जोड़ने की कोशिश करते हैं।
जब उससे पूछा गया कि स्वतंत्रता दिवस के सामान बेचकर वह कितना कमाता है, तो उसने कहा कि एक झंडे की कीमत उसके आकार पर निर्भर है - 50 रुपये (4,029.10 सेंट) से 200 रुपये ($ 2.42) तक हो सकती है, जबकि पेन, कैप, हैंड बैंड इत्यादि जैसी वस्तुओं की कीमत 50 रूपये है।
उसके लिए आजादी के मायने के बारे में सवाल का जवाब देते हुए सुरेंद्र ने कहा कि इसका मतलब यह भी है कि वे अगला त्योहार आने से पहले कुछ पैसे कमा सकें। राजधानी शहर के विभिन्न स्थानों पर स्टॉल लगाने वाले कुछ अन्य सड़क के विक्रेताों ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए।
जो सड़क विक्रेता स्वतंत्रता दिवस को अपनी आजीविका के स्रोतों में से एक के रूप में मनाते हैं, उनमें से एक विक्रेता ने साल के बाकी समय उनके संघर्ष पर प्रकाश डाला।
सिंह ने कहा कि जब कोई त्योहार नहीं होता है तो सड़क के विक्रेता या तो सब्जियां बेचते हैं या अंशकालिक नौकरी को ढूँढते हैं।
यह स्थिति सिर्फ दिल्ली तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश में है।
बीते काल को देखकर हर इंसान को भारत का
गौरवशाली इतिहास स्पष्ट हो जाता है। लेकिन आजादी के 76 साल बाद भी ऐसे रेहड़ी-पटरी वालों को देखकर आजादी के अर्थ के बारे में एक बार और सोचना है क्योंकि देश का एक वर्ग त्योहारों को आजीविका के साधन मानता है जबकि दूसरा वर्ग अपने शानदार उत्सवों में व्यस्त है।