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ईको-फ्रेंडली होली के रंग बनाकर राजस्थान की भील जनजाति ने प्राचीन कौशल को किया संरक्षित

रंगों का त्योहार होली देश भर में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। हालांकि, रसायनों और प्रदूषकों वाले हानिकारक रंगों के उपयोग से अक्सर क्षतिग्रस्त त्वचा, बाल, एलर्जी और अन्य दुष्प्रभाव होते हैं, जो लोगों और पर्यावरण, दोनों को नुकसान पहुंचाते हैं।
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मुंबई में रहने वाले गौरांग मोत्ता और उनके भाई सौरभ मोत्ता ने मिलकर 'मॉन्क्स बौफ़े' कंपनी की स्थापना की, जो राजस्थान के भील जनजाति के सदस्यों के साथ प्राकृतिक, पर्यावरण के अनुकूल और खाने योग्य रंग बनाने के उद्देश्य से काम करती है।
उन्होंने फूलों और सब्जियों से बने हुए 'अबीर होली रंगों' का उत्पादन शुरू किया, जिनमें कोई अन्य मिलावट नहीं होती।
Monks Bouffe in Rajasthan

कैसे बना 'मॉन्क्स बौफ़े' ?

सात साल पहले मोत्ता भाई विभिन्न जनजाति समुदायों के साथ अपनी कला पर काम करके उन्हें सशक्त बनाने के तरीके तलाश रहे थे। इन कलाओं में से एक है मसालों, सब्जियों, फलों और फूलों जैसी खाद्य सामग्री का उपयोग करके होली के रंग बनाना।

गौरांग मोत्ता ने Sputnik India को बताया, “उदयपुर के उपनगर में रहने वाली एक जनजाति वन्य सामग्री का उपयोग करके प्राकृतिक रंग बनाया करती थी। लेकिन यह कौशल लुप्त होने की कगार पर था क्योंकि वर्तमान में युवा पीढ़ी फैंसी रासायनिक रंगों को पसंद करती है। नई पीढ़ी नौकरी पाने के लिए गांवों और बस्तियों से बाहर जा रही थी। युवा लोगों के लिए गांव का कोई आर्थिक महत्व नहीं था और सांस्कृतिक मूल्यों का भी पतन हो रहा था।"

इसलिए मोत्ता भाइयों ने इस शानदार पारंपरिक कौशल को देश भर में आगे बढ़ाने और फैलाने का फैसला किया, जो सांस्कृतिक रूप से भील जनजाति और कई अन्य जनजातिय समुदायों से जुड़ा हुआ है।
Process of making of eco-friendly Holi colours

ईको-फ्रेंडली और खाद्य रंगों के उत्पादन की प्रक्रिया

होली के प्राकृतिक रंगों को बनाने के लिए चुकंदर, गुलाब, गेंदा और भूलभुलैया के फूलों से लेकर काले बेर और हल्दी तक कई सामग्रियों का उपयोग किया जाता है। होली के त्यौहार से काफी पहले से ही तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं।

मोत्ता ने साथ ही बताया, “रंगों का आधार मक्के का फूल है। समुदाय के सदस्य फसल के लिए अनुकूल समय में मक्का उगाते हैं और फिर इसे होली के अवसर के लिए संग्रहीत करते हैं। पलाश के फूल जैसे बहुत सारी वन्य सामग्रियाँ हैं जो केवल होली से ठीक पहले इसी मौसम में खिलते हैं, तो उनको जंगल से इकट्ठा किया जाता है।”

मोत्ता ने आगे बताया, “थोड़ी मात्र में चुकंदर भी मिलाया जाता है जिसे जनजाति के सदस्य खुद उगाते हैं और इन सभी सामग्रियों को एक साथ मिलाया जाता है। उन्हें टुकड़ों में काटा जाता है, सुखाया जाता है और फिर पानी के साथ मिलाया जाता है और प्रत्येक रंग के बीच अंतर करके बड़े बरतन में उबाला जाता है। जब उबला हुआ मिश्रण तैयार हो जाता है, तो उन्हें विशिष्ट अनुपात में मक्के के फूल के साथ मिलाकर प्लास्टिक शीट या केले के पत्तों पर सपाट रख दिया जाता है। जब वह मिश्रण सूख जाता है, तो इसे हाथ से छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है और फिर आटा चक्की की सहायता से पीस कर पाउडर में बदल दिया जाता है।”
रंग तैयार हो जाने के बाद मोत्ता भाई जनजाति से उन्हें खरीदकर ब्रांडिंग करते हैं, पैकेजिंग करते हैं और फिर उन्हें भारत के विभिन्न शहरों में वितरित करते हैं।
Process of making of eco-friendly Holi colours
इन रंगों का उत्पादन न केवल प्राकृतिक, बल्कि किफायती भी है, जिससे कई अन्य समुदायों के लिए ये रंग बनाना आसान हो जाता है।

मोत्ता ने कहा, “प्राकृतिक रंग बनाने जैसे कौशल और परंपराओं को आगे बढ़ाना बेहद जरूरी है। वे महत्वहीन लग सकते हैं, लेकिन उनका काफी महत्व है। न केवल कौशल और बनाए गए रंगों का महत्त्व है, बल्कि जंगल का मनुष्यों से संबंध इस कौशल को उनके पास बनाए रखता है।”

उन्होंने अपनी बात में जोड़ते हुए आगे कहा कि उनका उद्यम इस वजह से भी अहम है कि वह जनजाति समुदाय की वर्तमान पीढ़ी को आर्थिक मदद प्रदान करता है, जिससे उन्हें नौकरियों की तलाश में शहरों की ओर पलायन करने से रोका जा सके।
"सांस्कृतिक और आर्थिक मूल्य दोनों इसके साथ जुड़े हुए हैं," मोत्ता ने निष्कर्ष निकाला।
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