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रूस तालिबान सरकार को मान्यता देने वाला पहला देश: भारत और अन्य देशों के लिए निहितार्थ
रूस तालिबान सरकार को मान्यता देने वाला पहला देश: भारत और अन्य देशों के लिए निहितार्थ
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वर्ष 1996 से 2001 तक सत्ता में अपने पहले कार्यकाल के दौरान तालिबान को सिर्फ तीन देशों सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और पाकिस्तान से मान्यता प्राप्त हुई।
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2021 में कट्टरपंथी इस्लामी समूह द्वारा काबुल पर कब्ज़ा करने के बाद रूस अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को आधिकारिक रूप से मान्यता देने वाला पहला संप्रभु राष्ट्र बन गया।इसके अलावा, यूरेशियाई राज्य को छोड़कर किसी भी विदेशी शक्ति ने तालिबान को अपने प्रतिबंधित संगठनों की सूची से नहीं हटाया है।अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी ने रूस के इस कदम की सराहना करते हुए इसे "साहसिक निर्णय" बताया।हालांकि, इस मामले पर विशेषज्ञों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (MP-IDSA) की एसोसिएट फेलो डॉ. प्रियंका सिंह का कहना है कि अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को रूस की मान्यता को देखने के दो तरीके हैं।रूस और पश्चिम समर्थित यूक्रेन के मध्य शत्रुता के चरम ध्रुवीकरण को देखते हुए इस समय रूस ऐसा कुछ भी करेगा जो पश्चिम को अप्रसन्न करेगा। अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों ने तालिबान को बहिष्कृत करना जारी रखा है, जबकि चीन और कुछ अन्य देश उनसे पूरी तरह से जुड़े हुए हैं, उन्होंने समझाया।इस बीच, भारत के प्रमुख विदेश नीति संगठन, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के जूनियर फेलो शिवम शेखावत का मानना है कि भारत और रूस दोनों ही विशेषकर अपने हितों के प्रतिकूल आतंकवादी समूहों की उपस्थिति के संबंध में समान चिंताएं रखते हैं।पिछले चार वर्षों में भारत ने अपने हितों की सुरक्षा के लिए इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान (IEA) के साथ अपनी भागीदारी भी बढ़ाई है। उन्होंने रेखांकित किया कि ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत के विदेश मंत्री (EAM) एस. जयशंकर और आईईए के अंतरिम विदेश मंत्री के बीच हाल ही में हुई फोन कॉल इस बढ़ती भागीदारी का सबसे बड़ा अभिव्यक्ति है।सामरिक मामलों के टिप्पणीकार ने तर्क दिया कि भारत और रूस दोनों ने तालिबान के साथ बातचीत करने का निर्णय किया है, इसलिए अफगानिस्तान के लिए अन्य विकल्पों, उदाहरण के लिए चेन्नई-व्लादिवोस्तोक समुद्री गलियारे के माध्यम से, जैसे विषयों पर विचार किया जा सकता है, जिससे यह देखा जा सके कि क्या वे अफगानिस्तान और उसके नागरिकों के लिए लाभकारी हैं।
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तालिबान सरकार को मान्यता, कट्टरपंथी इस्लामी समूह, रूसी विदेश मंत्रालय, तालिबान को मान्यता, पश्चिम समर्थित यूक्रेन, रूस और यूक्रेन के बीच शत्रुता, पाकिस्तान-तालिबान के बीच तनाव, तालिबान शासन का महत्व, ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत
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रूस तालिबान सरकार को मान्यता देने वाला पहला देश: भारत और अन्य देशों के लिए निहितार्थ
वर्ष 1996 से 2001 तक सत्ता में अपने पहले कार्यकाल के दौरान तालिबान को सिर्फ तीन देशों सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और पाकिस्तान से मान्यता प्राप्त हुई।
2021 में कट्टरपंथी इस्लामी समूह द्वारा काबुल पर कब्ज़ा करने के बाद रूस अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को आधिकारिक रूप से मान्यता देने वाला पहला संप्रभु राष्ट्र बन गया।
इसके अलावा, यूरेशियाई राज्य को छोड़कर किसी भी विदेशी शक्ति ने तालिबान को अपने प्रतिबंधित संगठनों की सूची से नहीं हटाया है।
रूसी विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा, "हमारा मानना है कि अफ़गानिस्तान के इस्लामी अमीरात की सरकार को आधिकारिक मान्यता देने से हमारे देशों के मध्य विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादक द्विपक्षीय सहयोग के विकास को बढ़ावा मिलेगा।"
अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी ने रूस के इस कदम की सराहना करते हुए इसे "साहसिक निर्णय" बताया।
हालांकि, इस मामले पर विशेषज्ञों के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस (MP-IDSA) की एसोसिएट फेलो डॉ. प्रियंका सिंह का कहना है कि अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को रूस की मान्यता को देखने के दो तरीके हैं।
रूस और
पश्चिम समर्थित यूक्रेन के मध्य शत्रुता के चरम ध्रुवीकरण को देखते हुए इस समय रूस ऐसा कुछ भी करेगा जो पश्चिम को अप्रसन्न करेगा। अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देशों ने तालिबान को बहिष्कृत करना जारी रखा है, जबकि चीन और कुछ अन्य देश उनसे पूरी तरह से जुड़े हुए हैं, उन्होंने समझाया।
सिंह ने शुक्रवार को Sputnik India को बताया, "अमेरिका के बाहर निकलने से पहले भी रूस, चीन और पाकिस्तान, तालिबान का समर्थन करते रहे हैं। रूस द्वारा अफगानिस्तान में तालिबान शासन को मान्यता दिए जाने का भारत या दक्षिण एशिया क्षेत्र की अपेक्षा पश्चिम पर अधिक प्रभाव पड़ेगा। भारत ने पहले ही उनके साथ बातचीत प्रारंभ कर दी है, तथा हाल ही में बीजिंग में आयोजित त्रिपक्षीय बैठक के दौरान बीजिंग द्वारा उनके मध्य सुलह कराने के बाद पाकिस्तान-तालिबान के मध्य तनाव में कुछ कमी आई है। शेष दक्षिण एशिया के लिए तालिबान शासन का महत्व शून्य नहीं तो कम ही है।"
इस बीच, भारत के प्रमुख विदेश नीति संगठन, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के जूनियर फेलो शिवम शेखावत का मानना है कि भारत और रूस दोनों ही विशेषकर अपने हितों के प्रतिकूल आतंकवादी समूहों की उपस्थिति के संबंध में समान चिंताएं रखते हैं।
पिछले चार वर्षों में
भारत ने अपने हितों की सुरक्षा के लिए इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान (IEA) के साथ अपनी भागीदारी भी बढ़ाई है। उन्होंने रेखांकित किया कि ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत के विदेश मंत्री (EAM) एस. जयशंकर और आईईए के अंतरिम विदेश मंत्री के बीच हाल ही में हुई फोन कॉल इस बढ़ती भागीदारी का सबसे बड़ा अभिव्यक्ति है।
सिंह ने कहा, "चाबहार बंदरगाह के माध्यम से समुद्री मार्ग तक पहुंच प्राप्त करने के संबंध में अफगानिस्तान की संभावनाओं पर लंबे समय से चर्चा चल रही है।"
सामरिक मामलों के टिप्पणीकार ने तर्क दिया कि भारत और रूस दोनों ने तालिबान के साथ बातचीत करने का निर्णय किया है, इसलिए अफगानिस्तान के लिए अन्य विकल्पों, उदाहरण के लिए
चेन्नई-व्लादिवोस्तोक समुद्री गलियारे के माध्यम से, जैसे विषयों पर विचार किया जा सकता है, जिससे यह देखा जा सके कि क्या वे अफगानिस्तान और उसके नागरिकों के लिए लाभकारी हैं।
डॉ. सिंह ने कहा, "इस प्रकार, नई दिल्ली इस बंदरगाह को अफगानिस्तान के विकास और पुनर्निर्माण में सहायता के साधन के रूप में देखती है। तालिबान ने भी इस परियोजना में रुचि दिखाई है और पिछले वर्ष 35 मिलियन अमरीकी डालर का निवेश करने की प्रतिबद्धता जताई है। लेकिन हाल ही में ईरान और इजरायल के मध्य उत्पन्न तनाव ने इसके विकास को थोड़ा जटिल बना दिया है।"