चाय दुनिया भर में सबसे अधिक खपत होने वाले पेय पदार्थों में से एक है, विश्व में चाय की खपत 6.6 मिलियन टन तक पहुंच गई है और आगे आने वाले सालों में इसको खपत और बढ़ सकती है।
इसकी खपत और उत्पादन को देखते हुए भारत के असम में स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IIT) गुवाहाटी के शोधकर्ताओं की एक टीम ने चाय कारखाने से निकलने वाले कचरे से दवा, खाद्य उत्पाद और फलों के जूस की शेल्फ लाइफ बढ़ाने वाले स्टेबलाइजर बनाए हैं।
10 साल से अधिक समय से चल रहे एक अध्ययन के मुताबिक चाय बागानों से निकलने वाले वेस्ट के जरिए कई तरह के प्रोडक्ट निकाले गए हैं जो दवाओं और फूड इंडस्ट्री में एक क्रांति बन सकते है।
आमतौर पर हर साल दुनिया भर में एंटीऑक्सीडेंट की मांग 30 से 40,000 टन होती है और 90% आपूर्ति चीन करता है। भारतीय फार्मास्युटिकल बाजार बहुत बड़ा है और यह बहुत-सी दवाओं का उत्पादन करता है, लेकिन सभी सामग्रियां चीन से खरीदी जाती हैं।
इसी अंतर को कम करने के लिए IIT गुवाहाटी में केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर मिहिर कुमार पुरकैत और उनकी टीम ने मिलकर चाय उद्योग के कचरे का इस्तेमाल किया और सालों की मेहनत के बाद उन्होंने चाय के वेस्ट से दवा और खाद्य उत्पाद निकालने में सफलता हासिल की।
Sputnik ने IIT गुवाहाटी में केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर मिहिर कुमार पुरकैत से बात की कि किस तरह से उन्होंने चाय के कचरे को इतना कीमती बना दिया और इस कचरे से कौन कौन से दूसरे प्रोडक्ट निकाले गए हैं।
प्रोफेसर मिहिर ने बताया कि विश्व में लगभग 6.6 मिलियन टन चाय के खपत में भारत का 23% और चीन का 40% का योगदान है, इसके बाद केन्या से 10% और बाकी अन्य देशों से है। भारत द्वारा किये गए 23% उत्पादन का 52% अकेले असम द्वारा किया जाता है और बाकी 48 प्रतिशत की आपूर्ति पश्चिम बंगाल और केरल सहित दूसरे राज्यों द्वारा की जाती है।
देश में चाय की खपत में भारी वृद्धि से औद्योगिक चाय अपशिष्ट (वेस्ट) उत्पादन में भी वृद्धि होती है जिसका उपयोग कृषि संसाधनों में भी किया जा सकता है। चाय में फार्मास्यूटिकल्स सहित कई प्रकार के मूल्य वर्धित उत्पाद होते हैं और विशेष रूप से ग्रीन चाय में कैफीन की तुलना में अधिक एंटीऑक्सीडेंट होते हैं जिसका उपयोग साइकोएक्टिव दवाओं और विभिन्न प्रकार के औषधीय यौगिकों बनाने के लिए किया जाता है।
"आमतौर पर भारत में बड़ी मात्रा में चाय पैदा होती है और इसके उत्पादन में लगभग 28 मिलियन किलोग्राम चाय कचरा उत्पन्न होता है। चाय के कचरे में लगभग 30% पॉलीफेनोलिक घटक, 20% विभिन्न प्रकार के सेल्युलोसिक घटक और 20% लिग्निन होता है। हमने कैटेचिन समेत उन सभी पॉलीफेनोलिक यौगिकों को निकालने के लिए तकनीक विकसित की जिनकी विभिन्न प्रकार के हेल्थ सप्लीमेंट, टैबलेट, कैप्सूल आदि में भारी मांग है," प्रोफेसर पुरकैत ने Sputnik को बताया।
प्रोफेसर ने आगे बताया कि "इन विकसित तकनीकों का हमने प्रकाशन करने के साथ-साथ पेटेंट भी किया है और हमने चाय के कचरे से फार्मास्युटिकल ग्रेड सक्रिय कार्बन को भी मापा है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के फार्मास्युटिकल उत्पादों, आइसक्रीम, केक, बिस्किट और टैबलेट और कैप्सूल आदि में किया जा सकता है।"
Sputnik ने जब अन्य प्रोडक्ट के बारे में प्रोफेसर मिहिर कुमार से पुछा तब उन्होंने बताया कि हमने ग्रीन चाय के जरिए सब्जियों और फलों के रस के शेल्फ जीवन को दो वर्ष तक बढ़ा दिया, हम कृषि संसाधनों से निकाले गए उन सभी मूल्यवर्धित उत्पादों से फलों के रस का शेल्फ जीवन बढ़ा रहे हैं और इस तरह के परीक्षण हमारी प्रयोगशालाएँ कर रही हैं।
"हमने फलों के रस के स्टेबलाइजर भी बनाए हैं जिनकी मदद से दो साल तक भी बिना किसी खराबी के फलों का रस टिक सकता है," प्रोफेसर मिहिर कुमार ने Sputnik को कहा।
इसके अलावा उन्होंने चाय के कचरे से कार्बन डॉट्स, माइक्रोक्रिस्टलाइन सेलुलोज, नैनोक्रिस्टलाइन सेलुलोज जैसे प्रोडक्ट भी विकसित किए हैं।
जब उनसे पुछा गया कि चाय के कचरे से निकाले गए सभी उत्पादों को बड़े स्तर पर बनाने के लिए वह क्या काम कर रहे हैं तब उन्होंने बताया कि वह पहले ही व्यावसायिक स्तर के उत्पाद बनाने पर काम कर रहे हैं।
"पूर्वोत्तर राज्यों से भी कई कंपनियां हमारे पास आ रही हैं और इस तकनीक की वजह से निश्चित रूप से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा और यह असम और भारत सरकार की एक्ट ईस्ट नीति और जैव प्रौद्योगिकी के लिए भी सहायक होगी," प्रोफेसर मिहिर कुमार पुरकैत ने Sputnik को बताया।
यह परियोजना ग्रामीण देश, विशेष रूप से चाय बागानों और पूर्वोत्तर क्षेत्र के साथ-साथ पश्चिम बंगाल और केरल में, जहां भारी मात्रा में चाय कारखाने हैं, सामाजिक आर्थिक स्थिति के विकास में बहुत मददगार होगी और इन चाय फैक्ट्रियों से निकले चाय अपशिष्ट का उपयोग विभिन्न प्रकार के प्रमुख मूल्य वर्धित उत्पादों के लिए भी किया जा सकता है।
इन अध्ययनों के निष्कर्षों को विभिन्न अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में भी प्रकाशित किया गया है, जिनमें इंटरनेशनल जर्नल ऑफ बायोलॉजिकल मैक्रोमोलेक्यूल्स, कीमोस्फीयर, क्रिटिकल रिव्यूज़ इन बायोटेक्नोलॉजी आदि शामिल हैं। IIT गुवाहाटी के पर्यावरण केंद्र में पीएचडी थीसिस कार्य के तहत इस शोध में सोमनाथ चंदा, प्रांगन दुआराह और बनहिसिखा देबनाथ भी एक भाग के लेखकों रूप में शामिल थे।