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1945 से 202? तक: दुनिया नए वैश्विक पुनर्गठन के कगार पर है
1945 से 202? तक: दुनिया नए वैश्विक पुनर्गठन के कगार पर है
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जब दुनिया बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर बढ़ती है, वह याद दिलाना चाहिए कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नई अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था कैसे उभरी और पश्चिम ने इसको कैसे नष्ट किया।
2023-05-09T20:29+0530
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2023-05-09T20:32+0530
सर्गे लवरोव
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9 मई, 1945 को मास्को के समय के 2:10 बजे प्रसिद्ध सोवियत रेडियो प्रीज़ेन्टर यूरी लेविटन ने सोवियत सशस्त्र बलों के सुप्रीम कमांडर-इन-चीफ जोसेफ स्टालिन की डिक्री को पढ़ा था, जिस में नाजी जर्मनी के समर्पण की घोषणा शामिल हुई थी।इसके साथ इतिहास का सबसे घातक युद्ध समाप्त हो गया, जिसके कारण करोड़ों लोगों की मौत हुई और बहुत कस्बों, शहरों और पूरे राष्ट्रों को नष्ट किया गया।'बिग थ्री' सहयोगी शक्तियों यानी सोवियत संघ, अमेरिका और यूके के नेताओं ने 1943 के अंत में तेहरान सम्मेलन के दौरान युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था की योजना बनाना शुरू किया था। ईरानी राजधानी में बैठक के दौरान स्टालिन, विंस्टन चर्चिल और फ्रैंकलिन डेलानो रूजवेल्ट ने युद्धकालीन सहयोग और दूसरा मोर्चा खोलने पर चर्चा की थी। फरवरी 1945 में क्रीमिया में बिग थ्री की दूसरी बैठक यानी याल्टा सम्मेलन हुई।याल्टा सम्मेलन द्वितीय विश्व युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण बैठक थी, और शायद 20वीं शताब्दी के मध्य के बाद विश्व नेताओं की सबसे महत्वपूर्ण बैठक भी थी। यूरोप में सीमाओं के मुद्दों, जर्मनी के सहयोगी सैन्य अधिकृत की योजना और मुक्त हुए क्षेत्रों में "नाजीवाद और फासीवाद के आखिरी निशानों को नष्ट करने" के वादे के अलावा, सम्मेलन के दौरान सोवियत संघ ने वह निश्चय किया कि यूरोप में लड़ाई खत्म होने के दो या तीन महीनों बाद वह जापान के खिलाफ सैन्य अभियान शुरू करेगा।इससे भी महत्वपूर्ण वह था कि इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप सोवियत संघ संयुक्त राष्ट्र में शामिल होने के लिए सहमत हो गया। इस नए अंतर्राष्ट्रीय संगठन का उद्देश्य पहले और दूसरे विश्व युद्धों के बीच काम करने वाले लीग ऑफ नेशंस के स्थान पर काम करना था। इस बात पर सहमति हुई कि संयुक्त राष्ट्र सोवियत संघ, अमेरिका, यूके, फ्रांस और चीन सहित महान शक्तियों के बीच अंतरराष्ट्रीय शांति सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य होने के नाते ये शक्तियां अपने हितों के खिलाफ किए गए फैसलों को हटाने में सक्षम होंगी। सोवियत पक्ष ने वीटो अधिकार का समर्थन किया, वह सोचता था कि संयुक्त राष्ट्र की कार्य करने की क्षमता के लिए और लीग के पतन की तरह घटना से बचने के लिए यह मौलिक अधिकार है। वरिष्ठ सोवियत राजनयिक आंद्रेय वायशिंस्कीय ने कहा कि "वीटो अधिकार सर्वोपरि सिद्धांत है जो संयुक्त राष्ट्र का जड़ होता है।"संयुक्त राष्ट्र युद्ध के बाद की व्यवस्था का प्रतीक और गारंटर बन गया और दशकों तक अपने प्राथमिक लक्ष्य को पूरा करने में यानी महान शक्तियों के बीच नए वैश्विक युद्ध को हटाने में सफल रहा।1975 में यूरोपीय देशों के और अमेरिका और कनाडा के नेताओं ने हेलसिंकी डेक्लरैशन पर हस्ताक्षर किए। यह कई समझौते हैं जो पूर्वी और पश्चिमी गठबंधनों के बीच तनाव कम करने के लिए, राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के आदर, विवादों के शांतिपूर्ण समाधान, देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने, मानवाधिकार और राज्यों के बीच सहयोग की मदद से यूरोपीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तैयार किए गए थे।'यूक्रेन में रूबिकॉन को पार करना'संयुक्त राष्ट्र और हेलसिंकी समझौतों के सिद्धांतों ने शीत युद्ध के अंत तक सफलतापूर्वक पूर्वी-पश्चिमी संबंधों को नियंत्रित किया, और फरवरी 2014 में यूक्रेनी संकट की शुरुआत तक काम करते रहे।लवरोव ने चेतावनी दी कि कीव में तख्तापलट और रूस के साथ सहयोग से यूक्रेन को अलग करने और उसको नाटो का सदस्य करने के पश्चिमी प्रयास मास्को के लिए अस्वीकार्य थे।"अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली की स्थिरता को गंभीर झटके मिले हैं: यूगोस्लाविया की नाटो बमबारी, इराक पर आक्रमण, लीबिया पर हमला, अफगानिस्तान में विफल अभियान। 2013 में सीरिया पर प्रत्यक्ष आक्रमण केवल गहन कूटनीतिक प्रयासों की बदौलत हटाया गया था। यह लगता है कि विभिन्न 'रंग क्रांतियों' और 'शासन परिवर्तनों' को करने की अन्य परियोजनाओं का लक्ष्य अव्यवस्था और अस्थिरता को फैलाना है,” लवरोव ने कहा।संयुक्त राष्ट्र में भाषण के दौरान अमेरिका और उसके सहयोगियों को लेकर रूस की शिकायतों के बारे में बताते हुए रूसी राजनयिक ने बहुध्रुवीय व्यवस्था पर ध्यान भी दिया, जिसकी ओर दिल्ली, मास्को, बीजिंग और ब्रिक्स में उनके साझेदार, शंघाई सहयोग संगठन और ग्लोबल साउथ के राष्ट्र आगे बढ़ रहे हैं।1991 के बाद अमेरिकी 'नई विश्व व्यवस्था' से 21वीं सदी के 'वैश्विक बहुमत के उदय' तक"सोवियत संघ के पतन के बाद, अमेरिका और उसके सहयोगियों ने 'उदारवादी नियमों' के आधार पर दुनिया पर नियंत्रण किया; इस तरह के आधिपत्य के लिए कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी," अंतरराष्ट्रीय संबंधों के थिंक टैंक सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक रिसर्च एंड एनालिसिस के रिसर्च असोशीएट डॉ. मार्को मार्सिली ने Sputnik को बताया।शंघाई म्युनिसिपल सेंटर फॉर इंटरनेशनल स्टडीज में इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ-सेंट्रल एशियन स्टडीज के निदेशक प्रोफेसर वांग देहुआ आज की दुनिया की स्थिति को "वैश्विक बहुमत के उदय" की अवधि के रूप में समझते हैं। उन्होंने कहा कि मार्च में मास्को में शिखर सम्मेलन के दौरान राष्ट्रपतियों पुतिन और शी द्वारा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में शुरू किए गए परिवर्तनों में "विश्व मामलों में अमेरिका और यूरोप की घटती भूमिका और 'ग्लोबल साउथ' का उदय शामिल हैं।"वैश्विक शक्ति में बड़े पैमाने पर इन परिवर्तनों, 'ग्लोबल साउथ' के उदय और बहुध्रुवीयता की ओर धक्के का इंतजार लंबे समय तक किया गया, जिनका नेतृत्व रूस और चीन कर रहे हैं और जिनका विरोध अमेरिका और उसके नाटो सहयोगी कर रहे हैं, चीनी अकादमिक ने कहा।जब 1996 में अमेरिकी वैश्विक आधिपत्य लगभग असीमित लगता था, उस साल में प्रकाशित एक पुस्तक में वांग ने प्राचीन ग्रीस के शक्ति संतुलन के पारंपरिक सिद्धांतों पर चर्चा की थी, जिनके अनुसार "देश आधिपत्य शक्तियों के खिलाफ गठबंधन बनाएंगे।"उसी समय, अकादमिक ने कहा कि जिस तथाकथित 'उदारवादी नियमों पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था' के बारे में पश्चिमी राजनेताओं, अकादमिकों और मीडिया ने बात की थी, वह धीरे-धीरे हट रही है, यह शब्द "अमेरिकी वैश्विक आधिपत्य के लिए सिर्फ एक विनम्र व्यंजना है।"यूक्रेनी ट्रिगरवांग के अनुसार, अन्य देशों की राय में अमेरिका धीरे-धीरे वैश्विक आधिपत्य से वैश्विक "दुष्ट राज्य” में बदल रहा है जो “दुनिया भर में अपना साम्राज्य फैला रहा है"। यूक्रेनी संकट इस प्रक्रिया को बढ़ावा देने में मदद दे रहा है, अकादमिक का मानना है, क्योंकि यह संकट "दुनिया के अधिकांश लोगों” को दिखाता है कि “वाशिंगटन की घातक शीत युद्ध मानसिकता" यूक्रेनी संकट का कारण बनती है।इटली के फ्लोरेंस में स्थित प्रतिष्ठित इंटरनेशनल रिलेशन्स स्कूल इस्टिटूटो लोरेंजो डी मेडिसी में अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था के असोशीएट प्रोफेसर फैबियो मास्सिमो परेंटी इस बात से सहमत हैं।पेरेंटी सहमत हैं कि यूक्रेनी संकट ने "ऊपर उल्लेखनीय ऐतिहासिक रुझानों को बढ़ावा दिया है।"उन्होंने कहा, "नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था रहने के लिए अभी यहां है, उसका निर्माण दुनिया की आबादी को तानाशाही से मुक्त करने के लिए पिछले दशकों के युद्धों, वित्तीय संकटों और नई उभरती अंतरराष्ट्रीय समझौतों की स्थिति में किया जा रहा था।“ उन्होंने यह भी कहा कि “नया सांस्कृतिक कोड, नया मीडिया वातावरण और नए क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समझौते लोगों से लोगों के संबंधों, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के वास्तविक लोकतंत्रीकरण को आकार देने में” मदद करेगी।पतन के कगार पर साम्राज्य'यूएस VS चाइना: फ्रॉम ट्रेड वॉर टू रेसिप्रोकल डील' के लेखक, एशिया-प्रशांत मामलों के सलाहकार और भू-राजनीतिक टिप्पणीकार थॉमस वी. पॉकेन II ने Sputnik को जोर देकर कहा कि वाशिंगटन की शाही वैश्विक नीति इस देश या इसकी जनता की जन्मजात विशेषता नहीं है। उनके अनुसार यह हाल के दशकों में इसके राजनीतिक और आर्थिक उच्च वर्ग के भ्रष्टाचार का परिणाम है।"यह मेरा अनुभव है कि ज्यादातर अमेरिकी लोग वास्तव में अच्छे लोग हैं। उनको मदद देना पसंद है। उनको बेहतर दुनिया बनाने के लिए हर संभव काम करना पसंद है," पॉकेन ने कहा। दुर्भाग्य से, विशेष रूप से शीत युद्ध की समाप्ति और 21वीं सदी की शुरुआत के बाद दुनिया से अमेरिकी संबंध धीरे-धीरे ऐसी एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था स्थापित करने के प्रयासों में बदल गए, "जिस में मूल रूप से वाशिंगटन प्रमुख देश है," जो बाकी दुनिया पर नियंत्रण करने और अपने नियमों का दबाव डालने की तलाश कर रहा है।"यह बहुत महान साम्राज्यों के लिए सामान्य बात है, चाहे वे कितने भी 'अच्छे और अद्भुत' क्यों न हों। अंत में साम्राज्य का पतन होता है। [...] और मुझे लगता है कि हम अभी जो देखते हैं वह अमेरिका की विदेश नीति के साथ अमेरिका का भ्रष्टाचार है," उन्होंने कहा।पॉकेन के अनुसार, यूक्रेन संकट और एशिया में जारी आर्थिक वृद्धि की स्थिति में अमेरिका "गंभीर आर्थिक गिरावट के कगार पर" है।पॉकेन ने कहा कि जो भी क्यों न हो, दुनिया को वास्तव में वैश्विक और तटस्थ बातचीत मंच की आवश्यकता होगी ताकि विवाद करने वाले राष्ट्रों को समाधान तलाशने के लिए संभावना मिल सके। शायद वह मंच बदला हुआ संयुक्त राष्ट्र होगा, जिस में वर्तमान पश्चिमी समर्थन हटाया जाएगा।अंतरराष्ट्रीय संबंधों और रूसी मामलों के विश्लेषक गिल्बर्ट डॉक्टरोव ने Sputnik के साथ साक्षात्कार में जोर देकर कहा कि "जो बड़े परिवर्तन हम अपने चारों ओर देखते हैं, वे अभी शुरुआती दौर में हैं।"उनके अनुसार, ये परिवर्तन दिखाते हैं कि “इतिहास कहाँ जा रहा है, लेकिन हम किसी नतीजे के बारे में बात नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह सब कुछ शुरुआती दौर में है।"अभी चल रही सबसे महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक घटनाओं के बारे में पूछे जाने पर, उन्होंने यूक्रेन संकट पर ध्यान दिया, जिसके बारे में डॉक्टरोव ने कहा कि वह "वास्तव में रूस और अमेरिका के नेतृत्व में सामूहिक पश्चिम के बीच ताकत का परीक्षण है।"इस संदर्भ में, उन्होंने डी-डॉलरकरण पर "बड़े पैमाने पर" चर्चाओं पर जोर देकर याद दिलाई कि इस प्रक्रिया को "प्रमुख वित्तीय समाचार पत्रों में अमेरिकी वित्तीय विशेषज्ञों और टिप्पणीकारों ने खारिज कर दिया।"तेल व्यापार पर ध्यान देते हुए उन्होंने कहा कि अगर इस से संबंधित भुगतान डॉलर में नहीं होंगे, यह "डॉलर की आरक्षित स्थिति" को नष्ट कर देगा।
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नया वैश्विक पुनर्गठन, नई विश्व व्यवस्था, बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नई अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नई अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था का पतन, जोसेफ स्टालिन, पतन के कगार पर साम्राज्य
नया वैश्विक पुनर्गठन, नई विश्व व्यवस्था, बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नई अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद नई अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था का पतन, जोसेफ स्टालिन, पतन के कगार पर साम्राज्य
1945 से 202? तक: दुनिया नए वैश्विक पुनर्गठन के कगार पर है
20:29 09.05.2023 (अपडेटेड: 20:32 09.05.2023) यूरोप में द्वितीय विश्व युद्ध के अंत की एक और वर्षगांठ का उत्सव युद्ध के बाद उभरी नई अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था पर विचार करने का नया अवसर प्रदान करता है। जब दुनिया नई, बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की ओर बढ़ती है, वह याद दिलाने की जरूरत होती है कि युद्ध के बाद यह प्रणाली कैसे उभरी, और पश्चिम के अहंकार ने इसको कैसे नष्ट कर दिया।
9 मई, 1945 को मास्को के समय के 2:10 बजे प्रसिद्ध सोवियत रेडियो प्रीज़ेन्टर यूरी लेविटन ने सोवियत सशस्त्र बलों के सुप्रीम कमांडर-इन-चीफ जोसेफ स्टालिन की डिक्री को पढ़ा था, जिस में नाजी जर्मनी के समर्पण की घोषणा शामिल हुई थी।
"लाल सेना और नौसेना के बलों के लिए: 8 मई 1945 को, जर्मन उच्च कमांड के प्रतिनिधियों ने जर्मन सशस्त्र बलों के बिना शर्त आत्मसमर्पण के अधिनियम पर हस्ताक्षर किए। जर्मन-नाजी आक्रमणकारियों के खिलाफ सोवियत लोगों का महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध विजयी रूप से खत्म हुआ है। जर्मनी को पूरी तरह से हार मिली है," लेविटन ने कहा।
इसके साथ इतिहास का सबसे घातक युद्ध समाप्त हो गया, जिसके कारण करोड़ों लोगों की मौत हुई और बहुत कस्बों, शहरों और पूरे राष्ट्रों को नष्ट किया गया।
'बिग थ्री' सहयोगी शक्तियों यानी सोवियत संघ, अमेरिका और यूके के नेताओं ने 1943 के अंत में तेहरान सम्मेलन के दौरान युद्ध के बाद की विश्व व्यवस्था की योजना बनाना शुरू किया था। ईरानी राजधानी में बैठक के दौरान स्टालिन, विंस्टन चर्चिल और फ्रैंकलिन डेलानो रूजवेल्ट ने युद्धकालीन सहयोग और दूसरा मोर्चा खोलने पर चर्चा की थी। फरवरी 1945 में क्रीमिया में बिग थ्री की दूसरी बैठक यानी याल्टा सम्मेलन हुई।
याल्टा सम्मेलन द्वितीय विश्व युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण बैठक थी, और शायद 20वीं शताब्दी के मध्य के बाद विश्व नेताओं की सबसे महत्वपूर्ण बैठक भी थी। यूरोप में सीमाओं के मुद्दों, जर्मनी के सहयोगी सैन्य अधिकृत की योजना और मुक्त हुए क्षेत्रों में "नाजीवाद और फासीवाद के आखिरी निशानों को नष्ट करने" के वादे के अलावा, सम्मेलन के दौरान सोवियत संघ ने वह निश्चय किया कि यूरोप में लड़ाई खत्म होने के दो या तीन महीनों बाद वह जापान के खिलाफ सैन्य अभियान शुरू करेगा।
इससे भी महत्वपूर्ण वह था कि इस सम्मेलन के परिणामस्वरूप सोवियत संघ संयुक्त राष्ट्र में शामिल होने के लिए सहमत हो गया। इस नए अंतर्राष्ट्रीय संगठन का उद्देश्य पहले और दूसरे विश्व युद्धों के बीच काम करने वाले लीग ऑफ नेशंस के स्थान पर काम करना था। इस बात पर सहमति हुई कि
संयुक्त राष्ट्र सोवियत संघ, अमेरिका, यूके, फ्रांस और चीन सहित महान शक्तियों के बीच अंतरराष्ट्रीय शांति सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य होने के नाते ये शक्तियां अपने हितों के खिलाफ किए गए फैसलों को हटाने में सक्षम होंगी। सोवियत पक्ष ने वीटो अधिकार का समर्थन किया, वह सोचता था कि संयुक्त राष्ट्र की कार्य करने की क्षमता के लिए और लीग के पतन की तरह घटना से बचने के लिए यह मौलिक अधिकार है। वरिष्ठ सोवियत राजनयिक आंद्रेय वायशिंस्कीय ने कहा कि
"वीटो अधिकार सर्वोपरि सिद्धांत है जो संयुक्त राष्ट्र का जड़ होता है।"संयुक्त राष्ट्र युद्ध के बाद की व्यवस्था का प्रतीक और गारंटर बन गया और दशकों तक अपने प्राथमिक लक्ष्य को पूरा करने में यानी महान शक्तियों के बीच नए वैश्विक युद्ध को हटाने में सफल रहा।
1975 में यूरोपीय देशों के और अमेरिका और कनाडा के नेताओं ने हेलसिंकी डेक्लरैशन पर हस्ताक्षर किए। यह कई समझौते हैं जो पूर्वी और पश्चिमी गठबंधनों के बीच तनाव कम करने के लिए, राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के आदर, विवादों के शांतिपूर्ण समाधान, देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने, मानवाधिकार और राज्यों के बीच सहयोग की मदद से
यूरोपीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तैयार किए गए थे।
'यूक्रेन में रूबिकॉन को पार करना'
संयुक्त राष्ट्र और हेलसिंकी समझौतों के सिद्धांतों ने शीत युद्ध के अंत तक सफलतापूर्वक पूर्वी-पश्चिमी संबंधों को नियंत्रित किया, और फरवरी 2014 में यूक्रेनी संकट की शुरुआत तक काम करते रहे।
"अमेरिका और यूरोपीय संघ ने यूक्रेन में तख्तापलट का समर्थन किया और आँख बंद करके कीव में स्व-घोषित अधिकारियों की किसी भी कार्रवाई को सही समझना शुरू कर दिया, जिन्होंने यूक्रेनी लोगों के उस हिस्से पर बल प्रयोग के जरिए दबाव डालने की नीति चुनी, जिसने पूरे देश में असंवैधानिक व्यवस्था फैलाने के प्रयासों को खारिज कर दिया, जो अपनी मातृभाषा, संस्कृति और इतिहास के अपने अधिकार की रक्षा करना चाहते थे,” डोनबास में चल रहे संघर्ष का जिक्र करते हुए सितंबर 2014 में रूसी विदेश मंत्री सर्गे लवरोव ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक सत्र के दौरान कहा।
लवरोव ने चेतावनी दी कि कीव में तख्तापलट और रूस के साथ सहयोग से यूक्रेन को अलग करने और उसको नाटो का सदस्य करने के पश्चिमी प्रयास मास्को के लिए अस्वीकार्य थे।
"हमारे पश्चिमी भागीदारों ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर और हेलसिंकी अंतिम अधिनियम के सिद्धांतों के उल्लंघन की अस्वीकार्यता को लेकर हमारी बहुत चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया, अटलांटिक से प्रशांत क्षेत्र तक समान और अविभाज्य सुरक्षा और सहयोग के साझे क्षेत्र को स्थापित करने के लिए गंभीर संयुक्त कार्य को समय-समय पर नजरअंदाज किया," रूसी विदेश मंत्री ने कहा।
"अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली की स्थिरता को गंभीर झटके मिले हैं: यूगोस्लाविया की नाटो बमबारी, इराक पर आक्रमण, लीबिया पर हमला, अफगानिस्तान में विफल अभियान। 2013 में सीरिया पर प्रत्यक्ष आक्रमण केवल गहन कूटनीतिक प्रयासों की बदौलत हटाया गया था। यह लगता है कि विभिन्न 'रंग क्रांतियों' और 'शासन परिवर्तनों' को करने की अन्य परियोजनाओं का लक्ष्य अव्यवस्था और अस्थिरता को फैलाना है,”
लवरोव ने कहा।
संयुक्त राष्ट्र में भाषण के दौरान अमेरिका और उसके सहयोगियों को लेकर रूस की शिकायतों के बारे में बताते हुए रूसी राजनयिक ने बहुध्रुवीय व्यवस्था पर ध्यान भी दिया, जिसकी ओर दिल्ली, मास्को, बीजिंग और ब्रिक्स में उनके साझेदार, शंघाई सहयोग संगठन और ग्लोबल साउथ के राष्ट्र आगे बढ़ रहे हैं।
"नई ऐतिहासिक परिस्थितियों में यानी दुनिया में सांस्कृतिक और सभ्यता की विविधता की ओर और विकास के विकल्पों की बहुलता की ओर पूर्ण सम्मान की स्थिति में स्थायी वैश्विक शासन के नियमों के अनुसार सहमति बनाने का कोई विकल्प नहीं है। सभी दिशाओं में इस तरह की सहमति प्राप्त करना होगा मुश्किल और शायद थकाऊ होगा," लेकिन "कोई दूसरा रास्ता नहीं है," लवरोव ने जोर देकर कहा।
1991 के बाद अमेरिकी 'नई विश्व व्यवस्था' से 21वीं सदी के 'वैश्विक बहुमत के उदय' तक
"सोवियत संघ के पतन के बाद, अमेरिका और उसके सहयोगियों ने 'उदारवादी नियमों' के आधार पर दुनिया पर नियंत्रण किया; इस तरह के आधिपत्य के लिए कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी," अंतरराष्ट्रीय संबंधों के थिंक टैंक सेंटर फॉर स्ट्रैटेजिक रिसर्च एंड एनालिसिस के रिसर्च असोशीएट डॉ. मार्को मार्सिली ने Sputnik को बताया।
"पश्चिमी संस्थानों नाटो और यूरोपीय संघ ने पूर्व की ओर अपने विस्तार को उस हद तक आगे बढ़ाया कि मास्को ने उसको अस्वीकार्य समझकर जवाब दिया (2008 में जॉर्जिया में, 2014 और 2022 में यूक्रेन में)। रूसी सीमा पर नाटो बैलिस्टिक मिसाइलों को तैनात करने की अमेरिकी महत्वाकांक्षा का मुकाबला करने के लिए दो शक्तियों यानी पुनर्जीवित रूस और उभरते चीन की आवश्यकता थी," मार्सिली ने कहा।
शंघाई म्युनिसिपल सेंटर फॉर इंटरनेशनल स्टडीज में इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ-सेंट्रल एशियन स्टडीज के निदेशक प्रोफेसर
वांग देहुआ आज की दुनिया की स्थिति को "वैश्विक बहुमत के उदय" की अवधि के रूप में समझते हैं। उन्होंने कहा कि मार्च में मास्को में शिखर सम्मेलन के दौरान राष्ट्रपतियों पुतिन और
शी द्वारा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में शुरू किए गए परिवर्तनों में "विश्व मामलों में अमेरिका और यूरोप की घटती भूमिका और 'ग्लोबल साउथ' का उदय शामिल हैं।"
"जैसा कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने राष्ट्रपति पुतिन से नमस्कार कहते समय कहा, 'अभी ऐसे परिवर्तन हो रहे हैं जो सौ वर्षों तक दिखाई नहीं देते थे'। उन्होंने कहा, 'और हम इन परिवर्तनों को एक साथ कर रहे हैं', वांग ने बताया।
वैश्विक शक्ति में बड़े पैमाने पर इन परिवर्तनों, 'ग्लोबल साउथ' के उदय और बहुध्रुवीयता की ओर धक्के का इंतजार लंबे समय तक किया गया, जिनका नेतृत्व रूस और
चीन कर रहे हैं और जिनका विरोध अमेरिका और उसके नाटो सहयोगी कर रहे हैं, चीनी अकादमिक ने कहा।
जब 1996 में अमेरिकी वैश्विक आधिपत्य लगभग असीमित लगता था, उस साल में प्रकाशित एक पुस्तक में वांग ने प्राचीन ग्रीस के शक्ति संतुलन के पारंपरिक सिद्धांतों पर चर्चा की थी, जिनके अनुसार "देश आधिपत्य शक्तियों के खिलाफ गठबंधन बनाएंगे।"
"ये गठबंधन असीमित आधिपत्य को सीमित करने के लिए एक साथ काम करेंगे। इस तरह के गठबंधनों के उदाहरण लुई XIV, नेपोलियन, जर्मन कैसर और हिटलर के खिलाफ बनाए गए गठबंधन हैं। शक्ति संतुलन के सिद्धांत की स्थिति में यह आश्चर्य की बात नहीं है कि बड़ी शक्तियों के रूप में रूस और चीन नई विश्व व्यवस्था स्थापित करने के लिए अमेरिका और उसकी नाटो युद्ध मशीन के खिलाफ संतुलन बनाने के लिए सहयोग कर रहे हैं। यह व्यवस्था शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, अंतर्राष्ट्रीय कानून, न्याय और राज्यों की समानता पर ध्यान देता है," वांग ने समझाया।
उसी समय, अकादमिक ने कहा कि जिस तथाकथित 'उदारवादी नियमों पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था' के बारे में पश्चिमी राजनेताओं, अकादमिकों और मीडिया ने बात की थी, वह धीरे-धीरे हट रही है, यह शब्द "अमेरिकी वैश्विक आधिपत्य के लिए सिर्फ एक विनम्र व्यंजना है।"
वांग के अनुसार, अन्य देशों की राय में अमेरिका धीरे-धीरे वैश्विक आधिपत्य से वैश्विक "दुष्ट राज्य” में बदल रहा है जो “दुनिया भर में अपना साम्राज्य फैला रहा है"। यूक्रेनी संकट इस प्रक्रिया को बढ़ावा देने में मदद दे रहा है, अकादमिक का मानना है, क्योंकि यह संकट "दुनिया के अधिकांश लोगों” को दिखाता है कि “वाशिंगटन की घातक शीत युद्ध मानसिकता"
यूक्रेनी संकट का कारण बनती है।
इटली के फ्लोरेंस में स्थित प्रतिष्ठित इंटरनेशनल रिलेशन्स स्कूल इस्टिटूटो लोरेंजो डी मेडिसी में अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था के असोशीएट प्रोफेसर फैबियो मास्सिमो परेंटी इस बात से सहमत हैं।
पेरेंटी ने कहा कि ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन जैसे संस्थानों का निर्माण और विस्तार दिखाते हैं कि बड़े पैमाने पर परिवर्तन हो रहे हैं। "दुनिया के व्यापार और सकल घरेलू उत्पाद का सबसे बड़ा हिस्सा गैर-पश्चिमी देशों का है, और शाही माफिया-शैली नव-उदारवादी व्यवस्था ने दुनिया की अधिकांश आबादी के बीच और पश्चिम के भीतर भी आम सहमति (शायद ही विश्वसनीय) को खोया है।"
पेरेंटी सहमत हैं कि
यूक्रेनी संकट ने "ऊपर उल्लेखनीय ऐतिहासिक रुझानों को बढ़ावा दिया है।"
उन्होंने कहा, "नई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था रहने के लिए अभी यहां है, उसका निर्माण दुनिया की आबादी को तानाशाही से मुक्त करने के लिए पिछले दशकों के युद्धों, वित्तीय संकटों और नई उभरती अंतरराष्ट्रीय समझौतों की स्थिति में किया जा रहा था।“ उन्होंने यह भी कहा कि “नया सांस्कृतिक कोड, नया मीडिया वातावरण और नए क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय समझौते लोगों से लोगों के संबंधों, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के वास्तविक लोकतंत्रीकरण को आकार देने में” मदद करेगी।
'यूएस VS चाइना: फ्रॉम ट्रेड वॉर टू रेसिप्रोकल डील' के लेखक, एशिया-प्रशांत मामलों के सलाहकार और भू-राजनीतिक टिप्पणीकार थॉमस वी. पॉकेन II ने Sputnik को जोर देकर कहा कि वाशिंगटन की शाही वैश्विक नीति इस देश या इसकी जनता की जन्मजात विशेषता नहीं है। उनके अनुसार यह हाल के दशकों में इसके राजनीतिक और आर्थिक उच्च वर्ग के भ्रष्टाचार का परिणाम है।
"यह मेरा अनुभव है कि ज्यादातर अमेरिकी लोग वास्तव में अच्छे लोग हैं। उनको मदद देना पसंद है। उनको बेहतर दुनिया बनाने के लिए हर संभव काम करना पसंद है," पॉकेन ने कहा। दुर्भाग्य से, विशेष रूप से
शीत युद्ध की समाप्ति और 21वीं सदी की शुरुआत के बाद दुनिया से अमेरिकी संबंध धीरे-धीरे ऐसी एकध्रुवीय विश्व व्यवस्था स्थापित करने के प्रयासों में बदल गए, "जिस में मूल रूप से वाशिंगटन प्रमुख देश है," जो बाकी दुनिया पर नियंत्रण करने और अपने नियमों का दबाव डालने की तलाश कर रहा है।
"अमेरिकी सरकार भ्रष्टाचार में फंसी है जहां दूसरों की मदद देने के बारे में सोचने के बजाय, यह अपने आपको मदद देने वाले अपने उच्च वर्ग और वाशिंगटन बेल्टवे में सत्ता में रहने वाले लोगों को 'धन्यवाद' देने के बारे में सोचती है। और इसलिए जब यह सब कुछ बदलता है, जब उद्देश्य बदल जाते हैं, तब यह तथाकथित 'नए नियमों की व्यवस्था' बन गई ... हमारी दुनिया के लिए हानिकारक," पॉकेन ने कहा।
"यह बहुत महान साम्राज्यों के लिए सामान्य बात है, चाहे वे कितने भी 'अच्छे और अद्भुत' क्यों न हों। अंत में साम्राज्य का पतन होता है। [...] और मुझे लगता है कि हम अभी जो देखते हैं वह अमेरिका की विदेश नीति के साथ अमेरिका का भ्रष्टाचार है," उन्होंने कहा।
पॉकेन के अनुसार, यूक्रेन संकट और एशिया में जारी आर्थिक वृद्धि की स्थिति में अमेरिका "गंभीर आर्थिक गिरावट के कगार पर" है।
"हमें इन रुझानों पर बड़ा ध्यान देना चाहिए क्योंकि [वे] बदलती विश्व व्यवस्था का निर्माण करेंगे। आप अधिक विरोध देखने वाले हैं, आप शासन के अधिक परिवर्तन देखने वाले हैं। इसके अलावा, शायद आप विरोध प्रदर्शनों या चुनावों की मदद से यूरोप में बहुत नेताओं को सत्ता से गिराने को देखने वाले हैं,” विशेषज्ञ ने कहा।
पॉकेन ने कहा कि जो भी क्यों न हो, दुनिया को वास्तव में वैश्विक और तटस्थ बातचीत मंच की आवश्यकता होगी ताकि विवाद करने वाले राष्ट्रों को समाधान तलाशने के लिए संभावना मिल सके। शायद वह मंच बदला हुआ
संयुक्त राष्ट्र होगा, जिस में वर्तमान पश्चिमी समर्थन हटाया जाएगा।
अंतरराष्ट्रीय संबंधों और रूसी मामलों के विश्लेषक गिल्बर्ट डॉक्टरोव ने Sputnik के साथ साक्षात्कार में जोर देकर कहा कि "जो बड़े परिवर्तन हम अपने चारों ओर देखते हैं, वे अभी शुरुआती दौर में हैं।"
उनके अनुसार, ये परिवर्तन दिखाते हैं कि “इतिहास कहाँ जा रहा है, लेकिन हम किसी नतीजे के बारे में बात नहीं कर सकते हैं, क्योंकि यह सब कुछ शुरुआती दौर में है।"
अभी चल रही सबसे महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक घटनाओं के बारे में पूछे जाने पर, उन्होंने
यूक्रेन संकट पर ध्यान दिया, जिसके बारे में डॉक्टरोव ने कहा कि वह "वास्तव में रूस और अमेरिका के नेतृत्व में सामूहिक पश्चिम के बीच ताकत का परीक्षण है।"
"अमेरिकी उकसावों ने रूस को सामने आने पर मजबूर किया था, और उसने यूक्रेन में अपना विशेष सैन्य अभियान शुरू किया। रूस ने 'नरक से प्रतिबंधों' का सामना किया जिनको वाशिंगटन ने लगाया था, और रूस इसका सामना करने में सफल हुआ। और इन आश्चर्यजनक घटनाओं ने उन देशों को बहुत साहस दिया जिनका अमेरिकी वैश्विक आधिपत्य पर रवैया रूसी रवैये जैसा है,” भारत और चीन का जिक्र करते हुए विश्लेषक ने कहा।
इस संदर्भ में, उन्होंने
डी-डॉलरकरण पर "बड़े पैमाने पर" चर्चाओं पर जोर देकर याद दिलाई कि इस प्रक्रिया को "प्रमुख वित्तीय समाचार पत्रों में अमेरिकी वित्तीय विशेषज्ञों और टिप्पणीकारों ने खारिज कर दिया।"
तेल व्यापार पर ध्यान देते हुए उन्होंने कहा कि अगर इस से संबंधित भुगतान डॉलर में नहीं होंगे, यह "डॉलर की आरक्षित स्थिति" को नष्ट कर देगा।
"आज हम यही देख रहे हैं, और यह वैश्विक राजनीति में बदलाव ला रहा है जो हमें बहुध्रुवीय विश्व, अधिक लोकतांत्रिक विश्व शासन की दिशा में ले जाता है। अगर डॉलर आरक्षित मुद्रा के अपने दर्जे को खो देगा, तो यह वैश्विक शासन को नियंत्रित करने के लिए सब उपायों को खो देगा," विश्लेषक ने कहा।