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भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ कौन थे?
भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ कौन थे?
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आजादी के बाद भारतीय सेना में कई ऐसे अफसर हुए जिन्होंने भारतीय सेना को विश्व भर में एक अलग पहचान दी, सैम मानेकशॉ उनमें से एक थे। वह भारतीय सेना के पहले अधिकारी थे जिन्हे सेना के सर्वोच्च पद फील्ड मार्शल के पद पर पहुंचे।
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सैम का नाम भारतीय सेना के इतिहास में सम्मान से लिया जाता है। वे सैनिक साहस और दूरदर्शी सैन्य नेतृत्व के प्रतीक थे, जिन्हें 'सैम बहादुर' के नाम से पुकारा जाता था। मानेकशॉ 1971 के युद्ध में पाकिस्तान पर शानदार जीत के प्रमुख वास्तुकार माने जाते हैं, जिसके कारण बांग्लादेश का जन्म हुआ। मानेकशॉ का सैन्य करियर बहुत बड़ा रहा, आजादी से पहले ब्रिटिश काल से शुरू हुआ उनका सैन्य जीवन द्वितीय विश्व युद्ध से होकर भारत की आजादी के बाद पाकिस्तान और चीन के खिलाफ लड़े गए तीन युद्धों तक जाता है। इस दौरान उन्होंने कई रेजिमेंटल, स्टाफ और कमांड के कार्य संभाले। इसके बाद मानेकशॉ ने आगे भारतीय सेना की कमान संभाली और 1971 के युद्ध की सफलता के बाद उन्होंने फील्ड मार्शल का पद संभाला। फील्ड मार्शल सैम बहादुर का 27 जून 2008 को 94 वर्ष की आयु में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया।उन्होंने गोरखाओं की बहादुरी को लेकर कहा की वे निधन से नहीं डरते हैं। भारत की फिल्म निर्माता मेघना गुलजार के निर्देशन में मानेकशॉ के जीवन पर आधारित फिल्म "सैम बहादुर" जल्द ही बड़े पर्दे पर नजर आएगी, जिसका ट्रेलर दिल्ली में मंगलवार को फिल्म की स्टार कास्ट और भारतीय सेना के जनरल मनोज पांडे की मौजूदगी में जारी किया गया। फिल्म के आने से पहले Sputnikआपको बता रहा है भारतीय सेना के उस बहादुर और महान फ़ीड मार्शल सैम मानेकशॉ के बारे में जिन्होंने भारतीय सेना को एक नई दिशा दी।कौन हैं सैम मानेकशॉ? फील्ड मार्शल सैम होर्मूसजी फ्रामजी जमशेदजी (SHFJ) मानेकशॉ भारतीय सेना के पहले अधिकारी थे जो फील्ड मार्शल के पद तक पहुंचे। उन्होंने अपना सैन्य जीवन द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवा से शुरू किया।सैम का जन्म भारत में पंजाब राज्य के अमृतसर में 3 अप्रैल 1914 को पारसी माता-पिता से हुआ था। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पंजाब और शेरवुड कॉलेज (नैनीताल) से पूरी करने के बाद कैंब्रिज बोर्ड की स्कूल सर्टिफिकेट परीक्षा में विशिष्टता हासिल की। सैम के पिता ने शुरू में उन्हें फौज में शामिल होने के लिए मना कर दिया, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए पिता का विरोध किया कि वे लंदन जाकर डॉक्टरी की पढ़ाई करना चाहते हैं। लेकिन, उनके पिता ने उनकी इस इच्छा को भी मना कर दिया जिसके बाद मानेकशॉ ने भारतीय सैन्य अकादमी की प्रवेश परीक्षा दी।मानेकशॉ उत्तराखंड में स्थित भारतीय सैन्य अकादमी (IMA) के लिए चुने जाने वाले 40 कैडेटों के पहले बैच में थे और उन्हें 4 फरवरी 1934 को ब्रिटिश भारतीय सेना (अब भारतीय सेना ) की 12 FF राइफल्स में सेकंड लेफ्टिनेंट के तौर पर नियुक्त किया गया।सैम की 22 अप्रैल 1939 को बॉम्बे में जन्मी सिलू से शादी की। इनके दो बेटियाँ थी जिनका जन्म क्रमशः 1940 और 1945 में हुआ था।सेना में सैम का जीवन कैसा रहा? सैम मानेकशॉ ने सेना में 40 वर्षों तक अपनी सेवाएं दी। उन्होंने इस दौरान द्वितीय विश्व युद्ध, 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, 1962 में भारत-चीन युद्ध, 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध और 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में भाग लिया।सबसे पहले उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में पहले बर्मा अभियान में उन्होंने जापानियों के विरुद्ध कई मोर्चों में भाग लिया। सितांग नदी पर जब पेगु और रंगून की ओर बढ़ते समय उनका सामना जापानियों से हुआ, तो तत्कालीन कैप्टन मानेकशॉ ने घायल होने के बावजूद साहस और दृढ़ता के साथ अपनी कंपनी का नेतृत्व किया, उनकी वीरता और नेतृत्व के लिए उन्हें मिलिट्री क्रॉस (MC) से सम्मानित किया गया।मानेकशॉ ने युद्ध के मैदान में एक मर्तबा मौत को भी धोखा दिया था। जब वे एक युवा कैप्टन के रूप में बर्मा में तैनात थे और द्वितीय विश्व युद्ध के समय 1942 में जापानियों के साथ युद्ध लड़ने के दौरान उनके शरीर में नौ गोलियां लगीं। खुशी की बात है कि उनके बहादुर सिख अर्दली सिपाही शेर सिंह ने उनकी रक्षा की और उनकी जान बचाई।मानेकशॉ को 24 मई 1953 को रेजिमेंट 8 गोरखा राइफल्स और 61 कैवेलरी का कर्नल ऑफ द रेजिमेंट नियुक्त किया गया था और वे अपनी मृत्यु तक 8 गोरखा राइफल्स और 61 कैवेलरी रेजिमेंट के मानद कर्नल बने रहे।सैम ने दो साल तक इन्फैंट्री ब्रिगेड की कमान संभाली। फील्ड मार्शल सैम ने इंपीरियल डिफेंस कॉलेज से भी स्नातक की, जिसके बाद उन्हें उनकी विशिष्ट सेवा के लिए उन्हें 1968 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। सैम ने थोड़े समय के लिए जम्मू-कश्मीर में एक डिवीजन और नवंबर 1962 में पूर्वी सीमा पर एक कोर की कमान संभाली।तत्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल मानेकशॉ 4 दिसंबर 1963 को आर्मी कमांडर बनने वाले पहले भारतीय कमीशन अधिकारी थे जो पश्चिमी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ बने, नवंबर 1964 में पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ (GoC) के रूप में कार्यभार संभालने से पहले पश्चिमी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ बने। 8 जून 1969 को उन्हें थल सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया था। सैम के नेतृत्व में कैसे लड़ा गया ?1971 युद्ध थल सेनाध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने भारतीय सेना को युद्ध के लिए एक कारगर हथियार बनाकर राष्ट्र की महान सेवा प्रदान की। जब वह चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी के अध्यक्ष रहे तब उन्होंने थल सेना, नौसेना और वायुसेना को तालमेल के साथ काम करने वाली एक अच्छी टीम बनाया। इस अच्छे तालमेल की वजह से भारतीय सेना ने पूर्वी मोर्चे पर पाकिस्तानी सेना को हरा दिया और एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ। मानेकशॉ के कुशल सैन्य नेतृत्व में भारत ने महज 13 दिनों में पाकिस्तान को घुटनों पर ला दिया जिसके फलस्वरूप 90,000 से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना को आत्मसमर्पण कर दिया।1971 के संघर्ष के दौरान भारतीय सेना की जीत ने देश को आत्मविश्वास की एक नई भावना दी। भारत के राष्ट्रपति द्वारा सैम की सेवाओं को मान्यता देने के साथ जनवरी 1973 में उन्हें फील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत किया गया।फील्ड मार्शल रैंक क्या है?फील्ड मार्शल एक मानद रैंक है। यह भारतीय सशस्त्र बलों की सबसे वरिष्ठ पांच सितारा सैन्य रैंक है। फील्ड मार्शल को भारतीय सेना के जनरल से ठीक ऊपर का दर्जा दिया जाता है। यह काफी हद तक औपचारिक या युद्धकालीन रैंक है, फील्ड मार्शल अपनी अंतिम सांस तक अपने पद पर बने रह सकते हैं।
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भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ कौन थे?
आजादी के बाद भारतीय सेना में कई ऐसे अफसर हुए जिन्होंने भारतीय सेना को विश्व भर में एक अलग पहचान दी, सैम मानेकशॉ उनमें से एक थे। वह भारतीय सेना के पहले अधिकारी थे जिन्हें सेना के सर्वोच्च पद फील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत किया गया था।
सैम का नाम भारतीय सेना के इतिहास में सम्मान से लिया जाता है। वे सैनिक साहस और दूरदर्शी सैन्य नेतृत्व के प्रतीक थे, जिन्हें 'सैम बहादुर' के नाम से पुकारा जाता था।
मानेकशॉ 1971 के युद्ध में
पाकिस्तान पर शानदार जीत के प्रमुख वास्तुकार माने जाते हैं, जिसके कारण बांग्लादेश का जन्म हुआ।
मानेकशॉ का सैन्य करियर बहुत बड़ा रहा, आजादी से पहले ब्रिटिश काल से शुरू हुआ उनका सैन्य जीवन द्वितीय विश्व युद्ध से होकर भारत की आजादी के बाद पाकिस्तान और
चीन के खिलाफ लड़े गए तीन युद्धों तक जाता है।
इस दौरान उन्होंने कई रेजिमेंटल, स्टाफ और कमांड के कार्य संभाले। इसके बाद मानेकशॉ ने आगे भारतीय सेना की कमान संभाली और 1971 के
युद्ध की सफलता के बाद उन्होंने फील्ड मार्शल का पद संभाला। फील्ड मार्शल सैम बहादुर का 27 जून 2008 को 94 वर्ष की आयु में लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया।
उन्होंने गोरखाओं की बहादुरी को लेकर कहा की वे निधन से नहीं डरते हैं।
"यदि कोई व्यक्ति कहता है कि वह मरने से नहीं डरता है, तो वह या तो झूठ बोल रहा है या वह गोरखा है"।
भारत की फिल्म निर्माता मेघना गुलजार के निर्देशन में मानेकशॉ के जीवन पर आधारित फिल्म "सैम बहादुर" जल्द ही बड़े पर्दे पर नजर आएगी, जिसका ट्रेलर दिल्ली में मंगलवार को फिल्म की स्टार कास्ट और भारतीय सेना के जनरल मनोज पांडे की मौजूदगी में जारी किया गया।
फिल्म के आने से पहले Sputnikआपको बता रहा है भारतीय सेना के उस बहादुर और महान फ़ीड मार्शल सैम मानेकशॉ के बारे में जिन्होंने भारतीय सेना को एक नई दिशा दी।
फील्ड मार्शल सैम होर्मूसजी फ्रामजी जमशेदजी (SHFJ) मानेकशॉ
भारतीय सेना के पहले अधिकारी थे जो फील्ड मार्शल के पद तक पहुंचे। उन्होंने अपना सैन्य जीवन द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवा से शुरू किया।
सैम का जन्म भारत में पंजाब राज्य के अमृतसर में 3 अप्रैल 1914 को पारसी माता-पिता से हुआ था। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा पंजाब और शेरवुड कॉलेज (नैनीताल) से पूरी करने के बाद कैंब्रिज बोर्ड की स्कूल सर्टिफिकेट परीक्षा में विशिष्टता हासिल की।
सैम के पिता ने शुरू में उन्हें फौज में शामिल होने के लिए मना कर दिया, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए पिता का विरोध किया कि वे लंदन जाकर डॉक्टरी की पढ़ाई करना चाहते हैं। लेकिन, उनके पिता ने उनकी इस इच्छा को भी मना कर दिया जिसके बाद मानेकशॉ ने
भारतीय सैन्य अकादमी की प्रवेश परीक्षा दी।
मानेकशॉ उत्तराखंड में स्थित भारतीय सैन्य अकादमी (IMA) के लिए चुने जाने वाले 40 कैडेटों के पहले बैच में थे और उन्हें 4 फरवरी 1934 को ब्रिटिश भारतीय सेना (अब भारतीय सेना ) की 12 FF राइफल्स में सेकंड लेफ्टिनेंट के तौर पर नियुक्त किया गया।
सैम की 22 अप्रैल 1939 को बॉम्बे में जन्मी सिलू से शादी की। इनके दो बेटियाँ थी जिनका जन्म क्रमशः 1940 और 1945 में हुआ था।
सेना में सैम का जीवन कैसा रहा?
सैम मानेकशॉ ने सेना में 40 वर्षों तक अपनी सेवाएं दी। उन्होंने इस दौरान द्वितीय विश्व युद्ध, 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध, 1962 में भारत-चीन युद्ध, 1965 में भारत-पाकिस्तान युद्ध और 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध में भाग लिया।
सबसे पहले उन्होंने
द्वितीय विश्व युद्ध में पहले बर्मा अभियान में उन्होंने जापानियों के विरुद्ध कई मोर्चों में भाग लिया। सितांग नदी पर जब पेगु और रंगून की ओर बढ़ते समय उनका सामना जापानियों से हुआ, तो तत्कालीन कैप्टन मानेकशॉ ने घायल होने के बावजूद साहस और दृढ़ता के साथ अपनी कंपनी का नेतृत्व किया, उनकी वीरता और नेतृत्व के लिए उन्हें मिलिट्री क्रॉस (MC) से सम्मानित किया गया।
मानेकशॉ ने युद्ध के मैदान में एक मर्तबा मौत को भी धोखा दिया था। जब वे एक युवा कैप्टन के रूप में बर्मा में तैनात थे और द्वितीय विश्व युद्ध के समय 1942 में जापानियों के साथ युद्ध लड़ने के दौरान उनके शरीर में नौ गोलियां लगीं। खुशी की बात है कि उनके बहादुर सिख अर्दली सिपाही शेर सिंह ने उनकी रक्षा की और उनकी जान बचाई।
मानेकशॉ को 24 मई 1953 को रेजिमेंट 8 गोरखा राइफल्स और 61 कैवेलरी का कर्नल ऑफ द रेजिमेंट नियुक्त किया गया था और वे अपनी मृत्यु तक 8 गोरखा राइफल्स और 61 कैवेलरी रेजिमेंट के मानद कर्नल बने रहे।
सैम ने दो साल तक
इन्फैंट्री ब्रिगेड की कमान संभाली। फील्ड मार्शल सैम ने इंपीरियल डिफेंस कॉलेज से भी स्नातक की, जिसके बाद उन्हें उनकी विशिष्ट सेवा के लिए उन्हें 1968 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया। सैम ने थोड़े समय के लिए जम्मू-कश्मीर में एक डिवीजन और नवंबर 1962 में पूर्वी सीमा पर एक कोर की कमान संभाली।
तत्कालीन लेफ्टिनेंट जनरल मानेकशॉ 4 दिसंबर 1963 को आर्मी कमांडर बनने वाले पहले भारतीय कमीशन अधिकारी थे जो पश्चिमी कमान के
जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ बने, नवंबर 1964 में पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ (GoC) के रूप में कार्यभार संभालने से पहले पश्चिमी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ बने।
8 जून 1969 को उन्हें थल सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया था।
सैम के नेतृत्व में कैसे लड़ा गया ?
1971 युद्ध थल सेनाध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने भारतीय सेना को युद्ध के लिए एक कारगर हथियार बनाकर राष्ट्र की महान सेवा प्रदान की। जब वह चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी के अध्यक्ष रहे तब उन्होंने थल सेना, नौसेना और वायुसेना को तालमेल के साथ काम करने वाली एक अच्छी टीम बनाया।
इस अच्छे तालमेल की वजह से भारतीय सेना ने पूर्वी मोर्चे पर
पाकिस्तानी सेना को हरा दिया और एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हुआ। मानेकशॉ के कुशल सैन्य नेतृत्व में भारत ने महज 13 दिनों में पाकिस्तान को घुटनों पर ला दिया जिसके फलस्वरूप 90,000 से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय सेना को आत्मसमर्पण कर दिया।
1971 के संघर्ष के दौरान भारतीय सेना की जीत ने देश को आत्मविश्वास की एक नई भावना दी। भारत के राष्ट्रपति द्वारा सैम की सेवाओं को मान्यता देने के साथ जनवरी 1973 में उन्हें फील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत किया गया।
फील्ड मार्शल रैंक क्या है?
फील्ड मार्शल एक मानद रैंक है। यह
भारतीय सशस्त्र बलों की सबसे वरिष्ठ पांच सितारा सैन्य रैंक है। फील्ड मार्शल को भारतीय सेना के जनरल से ठीक ऊपर का दर्जा दिया जाता है। यह काफी हद तक औपचारिक या युद्धकालीन रैंक है, फील्ड मार्शल अपनी अंतिम सांस तक अपने पद पर बने रह सकते हैं।