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जानें सैम मानेकशॉ का स्मरण क्यों है भारत को?

© AP Photo / Mustafa QuraishiAn Indian army soldier photographs his children atop a BMP armored personnel carrier on the occasion of the Indian Army Day in New Delhi, India, Sunday, Jan. 15, 2012. On the left is a portrait of Field Marshal Sam Manekshaw.
An Indian army soldier photographs his children atop a BMP armored personnel carrier on the occasion of the Indian Army Day in New Delhi, India, Sunday, Jan. 15, 2012. On the left is a portrait of Field Marshal Sam Manekshaw. - Sputnik भारत, 1920, 27.06.2024
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पिछली सदी में किसी भारतीय सेनानायक को इतनी लोकप्रियता नहीं मिली जितनी एसएचएफजे मानेकशॉ को मिली, जिन्हें भारत में "सैम बहादुर" के नाम से जाना जाता है।
वे भारत के पहले फील्ड मार्शल थे जिन्हें यह सम्मान 1971 के भारत-पाक युद्ध में शानदार जीत दिलाने के लिए दिया गया था। इस युद्ध के बाद सैम बहादुर पूरे देश में एक किंवदंती की तरह प्रसिद्ध हो गए।

मुझे (इस लेख के लेखक को) उनसे मिलने का सौभाग्य दिल्ली छावनी के परेड ग्राउंड में 23 अक्टूबर 2004 में मिला। यहां वे भारतीय सेना के घुड़सवार दस्तों की एक परेड का निरीक्षण करने आए थे। उन्होंने फील्ड मार्शल की शानदार वर्दी में परेड की सलामी ली और जब परेड के बाद उनसे उनकी उम्र पूछी गई तो उन्होंने जवाब दिया, "मैं 90 साल, 6 महीने और 19 दिन का युवा फील्ड मार्शल हूँ।"

सैम मानेकशॉ भारतीय सैन्य अकादमी के पहले बैच के प्रशिक्षित थे और उन्होंने 1935 में भारतीय सेना की फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट में अपने सैनिक जीवन की शुरुआत की थी। दूसरे विश्व युद्ध में बर्मा में पैगोडा हिल की लड़ाई में एक जापानी सैनिक ने अपनी लाइट मशीनगन की सारी गोलियाँ उनके पेट में उतार दी थीं। 17 इंफेंट्री डिवीज़न के जीओसी मेजर जनरल डेविड ने उन्हें उसी समय मिलिटरी क्रॉस प्रदान कर दिया था।
देश के विभाजन के समय भारतीय सेना के पुनर्गठन में उनकी बड़ी भूमिका रही। फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के पाकिस्तान को मिल जाने के बाद उन्हें गोरखा राइफल्स रेजिमेंट में भेजा गया, जहां उन्हें अपना नया और सबसे प्रसिद्ध नाम "सैम बहादुर" मिला।

भारत-चीन और भारत-पाक युद्धों में सैम मानेकशॉ की भूमिका

पूरे देश ने सैम मानेकशॉ का जादू 1962 में देखा। 20 अक्टूबर 1962 के आरंभ हुए भारत-चीन युद्ध में उन्हें असम के तेज़पुर में बनाई गई सेना की चौथी कोर का कमांडर बनाया गया। भारतीय सेनाओं के मनोबल को ऊंचा रखने के लिए उन्होंने एक सैनिक सम्मेलन किया और उसमें कहा कि अब कोई भी सैनिक केवल उनके आदेश के बाद ही मोर्चे से पीछे हटेगा।

उन्होंने कहा, "और मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि यह आदेश कभी नहीं दिया जाएगा।"

इसके साथ सैम बहादुर को 1971 के भारत-पाक युद्ध ने घर-घर में प्रसिद्ध कर दिया। इस युद्ध में उनके निर्णय, दृढ़ निश्चय, रणनीति ने दो सप्ताह की लड़ाई में एक नए देश "बांगलादेश" को जन्म दिया। युद्ध के कई वर्ष बाद जब वे पाकिस्तान गए तो एक बुजुर्ग ने उनके पैर छुए और कहा कि उसके तीन बेटे उनकी कैद में थे।

"जब मेरे बेटे वापस आए तो उन्होंने बताया कि आपकी फौज ने उनका कितना ख्याल रखा, उनको भारतीय सैनिकों से बेहतर सुविधाएं दी गईं," रेपोर्टों के अनुसार उस बुजुर्ग पाकिस्तानी ने सैम बहादुर से कहा।

रिटायर होने के बाद सैम मानेकशॉ का जीवन

सैम मानेकशॉ ने रिटायर होने के बाद तमिलनाडु के ऊटी के पास शांत पहाड़ी क्षेत्र में रहने लगे। 2007 में तत्कालीन भारतीय राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम उनसे मिलने वेलिंगटन मिलिटरी हॉस्पिटल गए। दोनों के मध्य लगभग 20 मिनट तक बातचीत हुई फिर राष्ट्रपति कलाम ने उनसे पूछा कि कोई परेशानी तो नहीं है।

सैम बहादुर ने कहा, "परेशानी है, मैं अपने बिस्तर पर पड़ा हूँ और अपने राष्ट्रपति को सल्यूट नहीं कर पा रहा हूँ।"

राष्ट्रपति कलाम को जब यह पता चला कि सैम बहादुर का फील्ड मार्शल का अलाउंस उनको कभी नहीं मिला तो उन्होंने दिल्ली लौटते ही उनके सारे बकाया अलाउंस का 1.25 करोड़ रुपए का चेक विशेष विमान से उनको भिजवाया। इस चेक को सैम बहादुर ने तुरंत सेना सहायता कोष में दान दे दिया।
जब 27 जून 2008 को रात 12.30 पर उनके निधन की खबर आई तो तुरंत ही सारे न्यूज़ चैनल्स ने अपने बुलेटिन ओपन कर दिए। आमतौर पर देर रात नए बुलेटिन नहीं पढ़े जाते हैं जब तक कोई बहुत बड़ी घटना नहीं होती। उस रात सुबह 3 बजे तक लगभग सारे टीवी चैनल्स लाइव रहे। भारतीय सैन्य अकादमी के एक पासिंग आउट परेड में नए अफसरों को दिया गया उनका भाषण जोश से भर देता है।

"युद्ध में हारने वालों के लिए कोई जगह नहीं होती। अगर तुम हार जाओ तो वापस मत आना। तुम अपने गाँव, शहर, परिवार और पत्नी के लिए शर्मिंदगी लेकर आओगे," उन्होंने कहा।

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